Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 02
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૫ ] જ્યાતિષ્કર ́ડકમે એક સદેહસ્થાન ઔર ઉસકી સદૈનિવૃત્તિ [ ૧૩૭ क्षितिजपर उदित होते होंगे। यदि ऐसा न होता और सूर्योदयके नक्षत्र और लग्न एक ही होते तो लग्न स्वतंत्र पथकी कोई आवश्यकता न होती । अब दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि लग्न संज्ञासे विषुव दिनके सायंकालको उदय होनेवाले नक्षत्रको कहना इसको और जगह इसी ग्रंथमें कुछ आधार मिलता है क्या ? इसका अस्ति पक्षी उत्तर मिलता है । पद्य नं. २८० में विषुवकाल स्पष्ट किया है । पन्नरस मुहुत्तदिणो दिवसेण समा यजा हवइ राई | सो होइ विवकालो दिणराईणं तु संधिमि || इस पथसे और पथ नं. २९० से भी दिवसरात्रीका संधी यह स्पष्ट होता है । मंडलमस्सत्थंमि य अचक्खुविसयं गयंमि सुरंमि ॥ जो खलु मत्ताकालो सो कालो होइ विसुवस्स ॥ काललोकप्रकाशमें (पत्र ३९०) भी इसका अनुवाद 'प्रदोषकाले' ही विषुवकाल होता है ऐसा किया है । पद्ये नं. २९० में इसको 'मत्ताकाल' भी कहा हुआ है । मत्ता - मात्रा याने परिमाण (. Measure )। कालगणना करनेमें विभागोंका आरंभ और गिनती करनेके लिये उपयोगी ऐसा यह काल पहले समझा गया है इसका यह प्रमाण ह । जो विषय पद्य नं. २८० और २९० में है उसीको स्पष्ट करनेवाला और उसका उदाहरण देनेवाला पद्य नं. २८८ (दूसरा ) है । ऐसी वस्तुस्थिति होनेके कारण यह लग्न विषयक पद्य भी प्रक्षिप्त याने पीछेसे घुसेडा हुआ नहीं दिखाई देता । ज्योतिष्करंडक ग्रंथका प्रयोजन है सूर्यप्रज्ञप्तिको स्पष्ट करना । मूल सूर्यप्रज्ञप्ति में भी सायंकालको पूर्व क्षितिज पर उदित होनेवाले नक्षत्रोंका एक काल परिमाण ' नेतृनक्षत्राणि' के नामसे आया है । अतः यह विषय भी ज्योतिष्करंडक में पीछेसे घुसेडा हुआ नहीं ह । ज्योतिष्करंडक ग्रंथ छपाते समय ऐसी जो विसंगतियां हस्तलिखितों में मिली थी उनका परीक्षण और अधिक हस्तलिखित प्रतियोंसे तुलना करके फिर मुद्रण किया होता तो मुद्रित ग्रन्थ में अवतरण संशोधनकार्यमें लेनेमें अधिक सुविधा प्रतीत होती । उपर किये हुए विवेचनसे यह निश्चित पता चलाता है कि पासके दो पर्योको २८८ क्रमांक देना यह केवल नकल करने वाले असावधान लेखककी क्षति है। पहले एक क्रमांक ५४ लिखना रह गया होगा । फिर क्रमांक २८८ दोवार लिखा गया । क्षति तो अवश्य हुई किन्तु आखरी संपूर्ण ग्रन्थकी पयसंख्या न बढी न घटी यह समाधान रहा होगा। इस • क्षतिसे क्रमांक २८८ धारण करनेवाले दो पर्थोमेंसे कोई भी एक प्रक्षित होनेकी शंका पाठकों को होना अनिवार्य है, किंतु सूदन दृष्टिसे वहां प्रक्षेप नहीं है यह स्पष्टतया सिद्ध होता है । (श्रीऋषभदेवजी केशरीमल वेतांबर संस्था रतलाम का छपा हुआ ग्रन्थ इस लेखमें अभिप्रेत हैं) ૧૫ For Private And Personal Use Only

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