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સમીક્ષાભ્રમાવિષ્કરણ
૧૯૩૬
तिची करायला उपद्रवाने लड़ने गोचरी माटे न निकले अने आहार त्याग करें। जेम संगमना उपद्रव समये श्रमण भगवान महावीर परमात्माएर मास सुधी आहारसी त्याग कहतो।
३ गुप्तितितिक्षा कहतां मोहनीय कर्मनी उदय येते ब्रह्मचर्य पालवा मांटे आहारनं वर्जन करे। कारण के आहार रोवाथी मोहना उदय पण रोकाय छे। जैन माटे गीताजीमां पण कहल ले :
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं निवर्तते ॥ १ ॥
भावार्थ आहाररहित आत्माना इच्छा सिवाना विषय निवृत्त श्राय है, इच्छा जं छे ते पण परमात्मस्वरूपने देखवाथी निवृत्त छे
थाय
।
प्राणीया ववर्षतो होय, कुसार पडती होय अथवा सम्पातिमादि जीवधी आकुल प्रदेश थयेल होय त्यारे प्राणीजीनी दया माटे गोचरी देवा न जाय अने आहारने छाडे । तप पटले आहारना त्यागरूप उपवासादिक करवाना होय प्यारे पण आहार न करे । शरीरव्यवच्छेद एटले जिन्दगीना छल्ला कालमा शरीर होडवा माटे अमराण कर होय त्यारे आहार बर्जे ।
दिगम्बर शास्त्रमां पण आछ कारणे आहारनो त्याग बताववामां आवे छे। जुओ मूलाचार, पिण्डविशुध्यधिकार, गाथा ६१ आदके उपसग्गे तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीओ।
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પ
पाणिदयातव हे ऊ सरीरपरिहारवुच्छेदो ॥६९॥ [ आतङ्के उपसर्गे तितिक्षणे ब्रह्मचर्यगुप्तेः । प्राणिदयातपती शरीरपरिहार व्युच्छेदः ॥ ६१|||
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जोके आना विशेष व्याख्यानमां उपर जगाच्या करतां कां फेरफारो छे परंतु सामान्य अर्थ तो उपरना जेवो है ।
आरीत आहार लेवामां के कारणो, अने आहार छोडयामा छ कारणो बताव्यां है । आ बन्ने एक विषय ले के भिन्न भिन्न विषय है, वन्नेना स्थलो कया कयां, सुन्दोपसुन्द्र न्यायश्री परस्पर अथवा पूर्वश्री परनों के परी पूर्वनो बाथ थाय छे के केम, कोण अनवकाश, कोण सावकाश, इत्यादिक अनेक प्रकारता विचारनुं आ स्थान पण आवस्तुमा अत्यारे विशेषरूप नहि उतरतां सामान्य रीते पटलं तो आपणे जरूर arrat शकीशुं के पुष्टालम्बनरूप जे नो आदर करवो ।
हो
आचारता प्रश्नना अंगे, वैयावच ए आहार carria कारण पैकीनुं एक कारण छे अने तपस्या ए आहारने होडवानां कारणमां है, तो हवे आ बेमांश्री कोने राख अने कोने छोड आना स्पष्टीकरणमा आ प्रमाणे पण विचार करी शकाय के वैयावच अने आहारव्यागरूप तपस्या ए बन्ने साथ करा | कदाच बन्ने साथे करवानी शक्ति न होय तो वेयावच करवी, वैयावचनी जरुरत न होय अथवा अन्य करतार होय तो तपस्या करवी । (अपूर्ण)
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