Book Title: Jain Satyaprakash 1936 10 SrNo 15
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૯૯૨ દિગમ્બર શાસ્ત્ર કૈસે મને ? ૧૦૧ श्लोक २१, २३ में तीर्थंकर की गंभीर वाणी का सूचन है जो कि तीर्थंकर के हृदय से उत्पन्न होती है । अर्थात् साक्षात् स्वयं भगवान ही उपदेश करते हैं । दिगंबर सिद्धांत भगवान की वागी का प्रादुर्भाव उनके दिमाग से मानता है । ..... उज्ज्वल हेमरत्नसिंहासनस्थमिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् ॥ २३ ॥ अर्थात . और सफेद सिंहासन पर बैठे हुए आपको भव्यजीवरूपी मयूर देख रहे हैं। इसमें तीर्थंकर का सिंहासन के उपर बैठने का उल्लेख है । और दिगम्बर समाज तीर्थंकर को सिंहासन के उपर निराधार रहे हुए मानता है । २७ में भगवानकी शोभा तीन प्रकार वर्णित है। क्या दिगम्बर समाज माणिक, कनक, चांदी आदि को तीर्थंकर की प्रशंसा में प्रधानता देता है ? लोक २८ में भगवान के चरणों में एप्पमाला की अवस्थिति का उल्लेख है । लोक ३१, ३२, ३३ में कमर के उप का as a है। जो दिगम्बरीय मान्यता से भिन्न है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोक ३४ में तीर्थंकर के त्रिकाल पूजन का कथन है । इन सभी बातों से स्पष्ट मालूम होता है कि कल्यागमन्दिर स्तोत्र दिगम्बर यम्मत नहीं है। ऐसी परिस्थिति में से दिवाकर को दिगम्बर आचार्य मानना कैसे उपयुक्त हो सकता है । यह बात व्याय संमत है कि किसी भी संप्रदाय का अच्छा ग्रन्थ अपनाया जाय और उसे अच्छा माना जाय । और इसी से वेतांबर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायवाले एक दूसरे के ग्रन्थों को अपने ग्रन्थ की तौर पर मानते हैं और उनका अध्ययन अध्यापन भी करते हैं। खास करके दार्शनिक-न्यायविषयक ग्रन्थों के बारे में यह बात अधिक प्रमाण में मालम होती है। ऐसा होना अच्छा और जरुरी भी है । किन्तु एक अच्छे ग्रन्थ के कारण उसके कर्ता को भो अपने सम्प्रदाय का आचार्य मानना न केवल अनुचित ही किन्त बहुत अन्याययुक्त भी है। सच्ची सहृदयता इसी में है कि उस अच्छे ग्रंथ से लाभ उठाना और उस ग्रंथ के निर्माता के इतिहास को विकृत करने को जरा भी चेष्टा या भावना न करना । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर वेतांबरीय आचार्य हैं, और उनके बनाये हुये ग्रंथ भी वेतांबरी आम्नाय के अनुकूल हैं । ऐसी परिस्थिति में उनके कल्याणमंदिर स्तोत्र को अपनाया मानते हुए भी उनको वेतांबरीय आचार्य ही मानना ---इस सत्य का साफ साफ शब्दों में स्वीकार करना-दिगंबर भाईओं के लिये शोभाप्रद एवं औचित्यपूर्ण है । और इसी में सच्चे जैनत्व का रक्षण - पोषण है । (क्रमशः ) For Private And Personal Use Only

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