Book Title: Jain Satyaprakash 1936 10 SrNo 15
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૦૦ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ આશ્વિન इससे यह स्पष्टतया सिद्ध होता है कि उपर्युक्त लोक में निर्दिष्ट क्षपणक, ये महा तपस्वी जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर जी ही हैं । 66 दिवाकर " शब्द पूर्ववत का धोतक है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपर की बात से इतना तो अवश्य निश्चित होता है कि सिद्धसेन दिवाकरजी तार्किक शिरोमणि, प्रकाण्डज्ञानी और पूर्व के ज्ञाता थे इतना ही नहीं वे प्रखर तपस्वी भी थे । " शब्द को आगे .. 11 क्षपणक शब्द का 66 सिद्धसेन दिवाकरजी वेतांबर आम्नाय के आचार्य होते हुए भी दिगंबर समाज उन्हें दिगंबराचार्य मानता है । और इस बात के प्रमाण में “ क्षपणक धरता है । किन्तु उनकी यह कल्पना भ्रम - मूलक है ! क्योंकि अर्थ महातपस्वी श्रमण ही होता है, जो हम उपर बता चुके हैं । यद्यपि विक्रम की दशवीं शताब्दि के बाद के ग्रन्थकारों ने क्षपणक शब्द का अर्थ " दिगम्बर साधु " किया है, किन्तु यह उनकी प्राचीन जैन परिभाषा विषयक अज्ञता का परिणाम है। प्राचीन जैन साहित्य और बौद्ध साहित्य में स्थान स्थान पर वस्त्रयुक्त जैन साधु के लिए ही श्रमण, क्षपणक, निर्ग्रन्थ इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है, जब कि दिगंबरीय साधुओं के लिए आजीविक दिगंबर, बोटिक, अहीक इत्यादि शब्द का उपयोग किया है। इसके लिए देखिए वृक्ष, " द्वितीय संस्करण, पृष्ट २६, २७ और ३२ । “श्री तपगच्छ श्रमण For Private And Personal Use Only "" इसीसे श्रीमान् अक्षयवट मिश्र ने लिखा है कि ---" क्षपणक जैन मतावलंबी थे, श्वेतांबर संप्रदाय के साधु थे । क्षपणक शब्द का अर्थ है संन्यासी । उनका नाम क्षपणक न था, यह उनकी उपाधी मात्र थी। उनका नाम था • सिद्धसेन दिवाकर। " श्रीमान् महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणजी का भी इस विषय में यही अभिप्राय है । देखिये - " सरस्वती " भाग १७, खंड २, अंक ३ पृष्ट १३८ । • दिगम्बर समाज आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के सभी ग्रन्थों के विषय में मौन है । सिर्फ कल्याणमंदिर स्तोत्र का स्वीकार करता है । किन्तु उस स्तोत्र में दिगंबरीय मान्यताओं से विपरीत जो उल्लेख हैं उनका विचार दिगंबरीय विद्वानांने कभी नहीं किया माम होता । देखिए: श्लोक ६ में "केवलज्ञानी का कथन स्वीकारा | लोक ९, १५, १६ में भव्य मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी माना है । इसमें स्त्री जाति के मोक्ष का निषेध नहीं किया । और दिगम्बर सिद्धांत स्त्रीमोक्ष का सर्वथा अस्वीकार करता है 1

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