Book Title: Jain Sahitya me Vikar Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh View full book textPage 4
________________ निवेदन जिन मज्जनों के सामाजिक परिस्थिति का परिज्ञान है वे समझ सकते हैं कि आज जैन समाज के धर्मगुरुओं की जो हुक्मी के साम्राज्य में उनके माने हुए रूढी धर्म के विपरीत और आजकल के धर्म से सम्बन्ध रखने वाले सत्य इतिहास को समाज के सामने रखना कितना खतरनाक और उत्तरदायित्वपूर्ण है।जैनसमाज व्यापारी होने के कारण अपने धार्मिक साहित्य एवं उसके इतिहास सर्वथा अनभिज्ञ है और इस विषय की उसे जिज्ञासा भी पैदा नहीं होती। वह अपने धर्मगुरुओं की वाणी ही सर्वज्ञ की वाणी मानकर उनकी बतलाई हुई रूढ़ क्रियाओं के करने में ही स्वर्ग प्राप्ति के स्वप्न देख रहा है। धर्मगुरु समाज की इस अज्ञानता का मनमाना लाभ उठा रहे हैं। उनमें से इनेगिने व्यक्तियों को छोड़कर धार्मिक इतिहास की शोध करना तो दूर रहा वे स्वय अपने पूज्यदेव महावीर की वास्तविक जीवन घटनाओं से भी अपरिचित हैं। ऐसी दशा में बन्धनों मे जकडी हुई जैन जनता अपने सच्चे इतिहास और सूत्रों के परिज्ञान से वंचित रहे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारा धर्मइच्छुक अबोध समाज जो बहुत सी अशास्त्रीय रूढियो को धर्म समझ कर मात्र आधुनिक धर्मगुरुओं के इशारे पर ही अन्धकार में दौड रहा है उसमें विचारक और जिज्ञासु मनुष्यों के लिये यह ग्रन्थ अवश्य ही दीपक का कार्य करेगा। जिन २ विषयों का इस ग्रन्थ में सप्रमाण, प्रतिपादन किया गया है उन विषयों के सम्बन्ध में जैन दर्शन को मानने वाले मुख्य दोनों सम्प्रदाय की ओर से आजतक ऐसा एक भी उल्लेख प्रगट नहीं हुआ जो श्वेताम्बर-दिगम्बरवाद, मूर्तिवाद, देवद्रव्य वाद और आगम वाचनवाद की जड़ को ढूँढ निकाले और मवेषणा पूर्वक सप्रमाण इन विषयों पर प्रकाश डाले।लेखक महाशयने इस निबन्ध को लिखकर इस जबरदस्त त्रुटिको पूर्ण किया है इतना ही नहीं बल्कि विचारक जैनसमाज पर महान उपकार भी किया है। यह ग्रन्य आज से लगभग दसवर्ष पूर्व प्रसिद्ध लेखक प० बेचरदास जी की प्रोढलेखनी द्वारा गुर्जर गिरा से लिखा गया है। कई इष्टमित्रों की प्रेरणा से मैंने इसे हिन्दी भाषा भाषी जैनजनता के लिये अनुवादित किया है। आशा है विचारक जैन समाज इन बातों पर विचार करके अवश्य लाभ उठावेगा। अक्षयतृतीया देहली विनीत तिलकविजय।Page Navigation
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