Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 8
________________ लखकका वक्तव्य जैन साहित्यके इतिहासके दूसरे भागको पाठकोंके हाथों में देते हुए मुझे परम प्रसन्नताका अनुभव होना स्वाभाविक है। वर्णी-ग्रन्थमालाने सन् ५३ में इस योजनाको हाथमें लिया था। और मैंने लगभग सात वर्ष में इसके तीन भाग लिखे थे। प्रथम तो पीठिका भाग है । उसका प्रकाशन सन् ६३ में हुआ था । शेष दो भाग बारह वर्षोंके पश्चात् वर्णी-ग्रन्थमालाके मंत्री डा० दरबारीलालजी कोठियाके अथक प्रयत्नसे ही प्रकाशित हो सके हैं। पीठिकाके पश्चात् प्रथम भागमें कर्मसिद्धान्त-विषयक साहित्यका इतिहास है । इस दूसरे भागमें भूगोल, खगोल, तथा द्रव्यानुयोग ( अध्यात्म और तत्त्वार्थ ) विषयक साहित्यका इतिहास है। इन भागोंके अध्ययनसे विज्ञ पाठकोंको करणानुयोग और द्रव्यानुयोग विषयक मौलिक ग्रन्थोका विषय-परिचय भी ज्ञात हो सकेगा और वे उनके रचयिता आचार्योके सम्बन्धमें भी जान सकेंगे। साहित्य देश, धर्म और जातिका जीवन होता है । अतः उसका इतिहास भी उतना ही उपयोगी है जितना किसी राष्ट्रका इतिहास । जैसा मैंने ऊपर कहा है कि यह इतिहास पन्द्रह वर्ष पूर्व लिखा गया था, अतः इसमें कुछ स्थल विचारणीय हो सकते हैं । उदाहरणके लिये द्रव्यसंग्रहके टीकाकार ब्रह्मदेव और कुन्दकुन्दके टीकाकार जयसेनके पौर्वांपर्यका विचार । मैंने इनमें जयसेनके पश्चात् ब्रह्मदेवको बतलाया है । किन्तु यथार्थमें ब्रह्मदेवके पश्चात् ही जयसेन हुए हैं। उनकी पञ्चास्तिकाय-टीकाका द्रव्यसंग्रहकी टीकाके साथ मिलान करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है। ब्रह्मदेवजीकी टीकामें पद्मनन्दीपंचविंशतिकासे कोई उद्धरण नहीं लिया गया है, किन्तु पञ्चास्तिकायकी टीकामें लिया गया है तथा उसके बादके आचारसारसे भी उद्धरण लिया गया हैं । अतः निश्चय ही जयसेन बादके हैं । तथा आशाधरके अनगारधर्मागृत (१।११०) की टीकामें द्रव्यसंग्रहको टीकाको अक्षरणः अपनाया गया है, अतः आशाधरने ही ब्रह्मदेवजीका अनुकरण किया है, इतना संशोधन अपेक्षित है । इसको दृष्टिमें रखकर ही उस प्रकरणको पढ़ना चाहिये । अन्तमें मेरा कर्तव्य है कि मैं उन सब आधुनिक विद्वान् लेखकोंका आभार स्वीकार करूं, जिनकी कृतियों और लेखोंका उपयोग मैने अपने इस इतिहासमें किया है।

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