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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : १९ कुछ उल्लेखनीय मतान्तरों का निर्देश
ति०प० में जिन ग्रन्थोंका नामोल्लेख करते हुए उनके मतभेदोंका निर्देश किया है। उनके सिवाय भी अनेक मतभेदोंका निर्देश पाठान्तर रूपमें अथवा अनिर्दिष्ट आचार्योंके नामसे मिलता है। उन सबका संकलन कर सकना तो यहाँ शक्य नहीं है। फिर भी कुछ उल्लेखनीय मतान्तरोंका निर्देश यहाँ किया जाता है। १. मंगल शब्दके अर्थक सम्बन्धमें मतान्तर
पावं मलं ति भण्णइ उवचारसरूवेण जीवाणं ।
तं गालेदि विणासं णेदित्ति भणंति मंगलं केई ॥१७॥-अ० १ 'जीवोंके पापको उपचार रूपसे मल कहा जाता है। उसे यह मंगल गलाता है । विनाशको प्राप्त करता है इसलिए भी कोई आचार्य इसे मंगल कहते हैं।'
विशेषावश्यक भाष्यमें भी मंगलका यह लक्षण नहीं है ।
२. दूसरे अध्यायमें शर्करा आदि छै पृथिवियोंका बाहुल्य क्रमसे बत्तीस, अट्ठाईस, चौबीस, बीस, सोलह और आठ हजार योजन बतलाया है । आगे गाथा २३के द्वारा वही बाहुल्य प्रकारान्तरसे १३२०००, १२८०००, १२००००, ११८०००, ११६०००० और १०८००० बतलाया है। यह दिगम्बर ग्रन्थोंमें तो नहीं मिलता। किन्तु जिनभद्रगणि प्रणीत वृहत्संग्रहणीमें (गाथा २४१) उक्त मत मिलता है । संभवतया श्वेताम्बर परम्परामें यही मत मान्य है ।
३. चौथे अध्याय गा० ७७०में कहा है कि समवसरणमें स्थित मानस्तम्भोंकी ऊँचाई अपने-अपने तीर्थकरके शरीरकी ऊँचाईसे बारह गुणी होती हैं । आगे गा० ७७८में कहा है कि ऋषभनाथ स्वामीके समवसरणमें मानस्तम्भोंकी ऊँचाई एक योजनसे अधिक थी। शेष तीर्थकरोंके मानस्तम्भोंकी ऊँचाई क्रमसे हीन होती गई ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं।
४. चौथे अध्याय गाथा १४९६-९९में वीर निर्वाणके पश्चात् शकराजाकी उत्पत्तिका काल बतलाते हुए चार मत दिये हैं। इसी तरह वीर निर्वाणसे १००० वर्ष पर्यन्त हुए राजवंशोंकी काल गणना सम्बन्धी भी एक मतभेद दिया है । इनका कथन आगे करेंगे ।
५. चौथे अध्याय गा० २५४६में बतलाया है कि धातकी खण्ड द्वीपमें मेरुको छोड़कर शेष पर्वतोंका विस्तार जम्बूद्वीपके पर्वतोंसे दुगुना है। यही मत सर्वमान्य है किन्तु आगेकी गाथामें किन्हीं आचार्यका मत दिया है जो दोनों द्वीपोंमें पर्वतोंका विस्तारादि समान ही मानते हैं ।