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१६ : जैनसाहित्यका इतिहास सामने लोकविनिश्चय वर्तमान हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। संभव है लोकविनिश्चय नामसे प्रभावित होकर ही उन्होंने अपने ग्रन्थोंके नाम सिद्धिविनिश्चय
और न्यायविनिश्चय रखे हों। लोकविभाग
अब हम त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें उल्लिखित लोकविभाग सम्बन्धी उल्लेखोंको यहाँ उद्धृत करते हैं । लोकविनिश्चयके पश्चात् लोकविभाग ही ऐसा ग्रन्थ है जिसका त्रि० प्र० में विशेष उल्लेख मिलता है
दो छन्वारसभागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं ।
लोयउवरिम्मि एवं लोयविभायम्मि पण्णत्तं ॥२८१॥-अ० १। 'लोकके ऊपर अर्थात् लोक शिखर पर तीनों वातवलयोंका बाहुल्य क्रमसे एक कोस और उसका आधा, एक कोस और एक कोसका छटा भाग तथा एक कोस और एक कोसका बारहवाँ भाग है, ऐसा लोकविभागमें कहा है'।
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लोयविभायाइरिया दीवाण कुमाणुसेहि जुत्ताणं ।
अण्णसरूवेण ठिदि भासंते तं परूवेमो ॥२४९॥-अ० ४ । 'लोकविभागाचार्य कुमानुषोंसे युक्त उन द्वीपोंकी स्थिति अन्य प्रकारसे कहते है । उसका निरूपण करते हैं।
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जोइग्गण-णयरीणं सव्वाणं रूंदमाण सारिच्छं ।
वहलत्तं मण्णते लोगविभायस्स आइरिया ॥११५॥-अ० ७ । 'लोकविभागके कर्ता आचार्य समस्त ज्योर्तिगणोंकी नगरियोंके विस्तार प्रमाणके समान ही उसके बाहुल्यको भी मानते हैं।
लोयविभायाइरिया सुराण लोअंतिआण वक्खाणं ।।
अण्णसरूवं वेति त्ति पि एण्हि परूवेमो ॥६३५॥-अ० ८ । 'लोकविभागाचार्य लोकान्तिक देवोंका व्याख्यान अन्य रूपसे करते है इसलिये उसे भी हम यहाँ कहते हैं।
लोक विभाग नामक एक ग्रंथका, जिसका संस्कृत रूपान्तर उपलब्ध है, परिचय प्रारम्भमें ही कराया गया है। किन्तु लोक विभागके नामसे जिन मतान्तरोंका निर्देश त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें है, उनमेंसे संस्कृत लोक विभागमें अनेक विषय तो मिलते नहीं या अन्य रूपमें मिलते हैं। उदाहरणके लिये