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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ५ भनुष्यका आवास है। अतः शुरूके ढाई द्वीप और दो समुद्र मनुष्य लोक कहे जाते हैं।
जम्बूद्वीपके मध्यमें सुमेरु पर्वत है। उसकी ऊँचाई एक लाख योजन है। घातकी खण्ड और पुष्कर द्वीपमें भी दो दो मेरु हैं। उनकी ऊँचाई ८४ हजार योजन है। जम्बूद्वीपमें सुमेरुसे दक्षिणमें हिमवान, महाहिमवान और निषध नामके तथा उत्तरमें नील रुक्मि और शिखरी नामके वर्षधर पर्वत हैं । प्रथम मेरु पर्वतके दक्षिणकी ओर क्रमसे भरत हैमवत और हरि नामक और उत्तरमें रम्यक हैरण्यवत और ऐरावत नामके वर्ष ( क्षेत्र ) हैं । उन सबके बीचमें विदेह वर्ष है। उस विदेह वर्षके बीचमें सुभेरु पर्वत है। भरत वर्षका उत्तर दक्षिण विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमें से ६ भाग है। आगेका प्रत्येक वर्षधर पर्वत और वर्ष विदेह पर्यन्त दूना दूना विस्तार लिये हुए है । और विदेहके पश्चात् ऐरावत पर्यन्त यह विस्तार क्रमसे आधा होता गया है। अतः भरत और ऐरावत वर्षका विस्तार समान हैं। ये दोनों धनुषाकार हैं। इन दोनोंके मध्यमें एक विजया गिरि है। हिमवान पर्वतसे निकलकर गंगा और सिंधु नदी भारतवर्ष में होकर बहती हैं और विजयाके नीचेसे निकलकर लवण समुद्र में गिरती हैं। इसी तरह ऐरावतमें शिखरी पर्वतसे निकलकर रक्ता रक्तोदा नामकी नदी विजयाधके नीचेसे होती हुई ऐरावत क्षेत्रमें बहती हैं और लवण समुद्रमें गिरती हैं। इन दोनों नदियों और विजया पर्वतके कारण भरत और ऐरावतके छ छै खण्ड हो गये हैं। उनमेंसे पांच म्लेच्छ खण्ड और केवल एक आर्यखण्ड है।
विदेहक्षेत्रका विस्तार भरत से चौसठगुना है। बीचमें सुमेरु पर्वत है । उसके चारों ओर चार गजदन्त पर्वत हैं। उनमेंसे मेरुसे पश्चिमोत्तर दिशा में गन्धमादन, उत्तर पूर्व दिशामें माल्यवान, दक्षिण पूर्व दिशामें सौमनस, और दक्षिण
सहस्र योजन ऊंचा और इतना ही सब ओर गोलाकार फैला हुआ है। यह पर्वत पुष्कर द्वीपरूप गोलेको मानों बीचमें से विभक्त कर रहा है और इससे विभक्त होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये हैं। उसमें प्रत्येक वर्ष और पर्वत वलयाकार ही है ॥७४-७८॥"पुष्कर द्वीप चारों ओरसे अपने ही समान विस्तार वाले मीठे पानी के समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ है ॥८७॥ इस प्रकार सातों द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। और वे द्वीप तथा समुद्र परस्पर समान हैं और उत्तरोत्तर दुगने होते गये हैं ॥८८॥""पुष्कर द्वीपमें सम्पूर्ण प्रजावर्ग सर्वदा अपने आप ही प्राप्त हुए षट्रस भोजनका आहार करते हैं ॥ ९३ ॥
-वि० पु०, अंश २, अ० ४ ।