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अकलंक और जीव की परिभाषा
डॉ० नंद लाल जैन शास्त्रार्थी, टीकाकार; जैनन्याय, प्रमाणवाद एवं अनेकान्त के प्रकाशक भट्ट अकलंक का नाम सुनते ही न्याय और सिद्धांत के विद्वानों को महान् गौरव का अनुभव होता है। यद्यपि सिमोवा जिले में प्राप्त दसवीं सदी के एक शिलालेख में उनका नाम पाया गया है, फिर भी यह दुर्भाग्य की बात है कि उनका प्रामाणिक जीवन चरित्र हमें उपलब्ध नहीं है। हम प्रभाचन्द्र के कथाकोष, मल्लिषेण प्रशस्ति, राजबली कथे एवं अकलंक चरित्र से उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं का विवरण पाते हैं। उनकी प्रशंसा में श्रवणबेलगोला. में अनेक अभिलेख हैं और ६७वें अभिलेख में साहसतुंग को उनका संरक्षक बताया गया है। इनका जीवन काल ७२०-७८० ई० माना जाता है। ये दक्षिण देश के राष्ट्रकूट प्रदेश के रहे हैं। इनके जीवन काल में महाराज दंतिदुर्ग साहसतुंग (७२५-७५७), अकालवर्ष शुभतुंग (७५७-७३), गोविंद द्वितीय (७७३-७६) एवं ध्रुव (७७६-६३) नामक चार राजाओं ने राष्ट्रकूट क्षेत्र (महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में आंध्र-कर्नाटक) में प्रभावी राज्य किया। इनके जीवन काल में राजस्थान-गुजरात में आचार्य हरिभद्र (७००-७० ई०) , उत्तरप्रदेश के कन्नौज और बंगाल के बिहारी आचार्य वप्पभट्टि (७४३-८३८ ई०) और बदनावर, मध्य प्रदेश में आचार्य जिनसेन प्रथम ने जिनधर्म प्रभावना एवं साहित्य सृजन किया। इनमें हरिभद्र और जिनसेन तो उनके विषय में जानते थे, पर संभवतः वप्पभट्टि इनसे अपरिचित रहे होंगे। अकलंक का युग शास्त्रार्थी युग था। प्रायः आचार्यों का बौद्धों से शास्त्रार्थ होता था। वप्पभट्टि ने ६ महीने तक चले शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वान् वर्धनकुंजर को हराया था। हरिभद्र ने भी महाराज सूर्यपाल की सभा में बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराया। अकलंक ने भी साहसतुंग के समय में बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराया। उन्होंने उड़ीसा में भी शात्रार्थ का डंका बजाया था। शास्त्रार्थ के अतिरिक्त, बचपन में ब्रह्मचर्य, बौद्ध विद्यालय में गोपनीय रूप से शिक्षा तथा टीका और मौलिक ग्रंथों का लेखन आदि उनके जीवन की प्रमुख घटनाएं हैं। अकलंक की कृतियां : ___ अकलंक के ४ मौलिक और २ टीका ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। मौलिक ग्रंथों में प्रमाण
* जैन केन्द्र, रीवां (म०प्र०)