Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 225
________________ 186 जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान करता है। शुभपरिणाम के प्रकर्ष से ऊपर के देवों में उत्पत्ति : जीवों की ऊपर-ऊपर के देवों में उत्पत्ति किस कारण से होती है? इसके विषय में अकलंकदेव का कथन है “विशुद्धपरिणामप्रकर्षनिमित्तत्वाच्च उपर्युपर्युपपत्तेः । इह विशुद्धपरिणामभेदनिमित्तः पुण्यकर्मबन्धविकल्पः तत्पूर्वको देवेषु उपपाद इति उपर्युपरि अभिमान हानिः । कारणसदृशं हि कार्यं दृष्टमिति। तद्यथा- तैर्यग्योनेषु असंज्ञिनः पर्याप्ताः पञ्चेन्द्रियाः संख्येयवर्षायु॑षः अल्पशुभपरिणामवशेन पुण्यबन्धमनुभ्य भवनवासिषु व्यन्तरेषु च उत्पद्यन्ते । त एव. संज्ञिनो मिथ्यादृष्टयः सासादनसम्यग्दृष्टयश्च आसहस्रारादुत्पद्यन्ते। त एव सम्यग्दृष्टयः सौधर्मादिषु अच्युतान्तेषु जायन्ते । असंख्येयवर्षायुषः तिर्यङ्मनुष्या मिथ्यादृष्टयः सासादनसम्यग्दृष्टयश्च आ ज्योतिष्केम्य उपजायन्ते, तापसाश्चोत्कृष्टाः। त एव समयग्दृष्टयः सौधर्मैशानयोर्जन्मानुभवन्ति। मनुष्याः संख्येयवर्षायुषः मिथ्यादर्शनाः सादनसम्यग्दर्शनाश्चः, भवनवासिप्रभृतिषूपटिमग्रैवेयकान्तेषु उपपादमास्कन्दन्ति । परिव्राजकानां देवेषूपपादः आ ब्रह्मलोकात्। आजीवकानां आसहस्रारात् । तत ऊर्ध्वमन्यलिङ्गानां नास्त्युपपादः। निर्ग्रन्थलिङ्गधराणामेव उत्कृष्टतपोऽनुष्ठानोपचितपुण्यबन्धानाम् असम्यग्दर्शननानामुपरिमग्रैवेयकान्तेषु उपपादः । तत ऊर्ध्वं सम्यग्दर्शनज्ञानचरणप्रकर्षोपेतानामेव जन्म नेतरेषाम् । श्रावकाणां सौधर्मादिष्वच्युतान्तेषु जन्म नाधो नोपरीति परिणामविशुद्धिप्रकर्षयोगादेव कल्पस्थानातिशययोगोऽवसीयः । " ( रा०वा ४ / २१ ) अर्थ- विशुद्धपरिणामों के प्रकर्ष से ऊपर-ऊपर के देवों में उत्पत्ति होती है। विशुद्धपरिणाम के भेद से पुण्यकर्म के बन्ध में भेद हो जाता है। उस पुण्यभेद से देवों में उपपाद होता है इसलिए ऊपर-ऊपर के देवों में अभिमान की कमी होती है, क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य देखा जाता है। जैसे-तिर्यंचों में असंज्ञी, पर्याप्त, संख्येयवर्षायुवाले पंचेन्द्रिय अल्पशुभ परिणाम के द्वारा बांधे गये पुण्य के फल से भवनवासियों और व्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं। उनमें जो संज्ञा मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच हैं वे सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। उन्हीं तिर्यंचों में जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्गपर्यन्त जन्म लेते हैं। असंख्यवर्षायु वाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच एवं मनुष्य तथा उत्कृष्ट तपस्वी ज्योतिष्क देवों तक में उत्पन्न होते हैं, उनमें जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में जन्म लेते हैं। संख्येयवर्षायुवाले मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि भवनवासियों से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक के देवों में उपपाद को प्राप्त होते हैं । परिव्राजकों को ब्रह्मलोकपर्यन्त तथा

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