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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
ता०वृ० ३/५४)
तथा उन्हीं आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित तात्पर्यवृत्ति में मिथ्यादृष्टि को कभी शुभोपयोग परिणाम करने वाला भी बताया है
_ “तत्रैवं कथञ्चित् परिणामित्वे सति अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिर्जीवो विषयकषायरूपाशुभोपयोगपरिणामं करोति। कदाचित् पुनश्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मानं त्यक्त्वा भोगाकांक्षानिदानस्वरूपं शुभोपयोगपरिणामं च करोति ।” (समयसार, गाथा-७४)
इसके हिन्दी रूपान्तर में आचार्य ज्ञानसागर जी ने मिथ्यादृष्टि को प्रधानता की अपेक्षा अशुभोपयोगी कहा है, सर्वथा नहीं____ “जब तक जीव अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि की अवस्था में रहता है तब तक प्रधानता से विषय-कषायरूप अशुभोपयोग करता है, किन्तु कभी-कभी चिंदानन्दस्वरूप शुद्धात्मा को प्राप्त किये बिना उससे शून्य केवल भोगाकांक्षा के निदानबन्धस्वरूप शुभोपयोग परिणाम भी करता है।" (समयसार, ज्ञानोदय प्रकाशन, जबलपुर, गाथा : ७६)
इन दो उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि गुणस्थानों में अशुभोपयोगादि का उपर्युक्त विभाजन प्रधानता की अपेक्षा से है, सर्वथा नहीं। प्रवचनसार गाथा ३/४८ की तात्पर्यवृत्ति में तो आचार्य जयसेन ने 'बहुपदस्य प्रधानत्वादाम्रवननिम्बवनवदिति' शब्दों द्वारा इसे और भी स्पष्ट कर दिया है। . ___ इस प्रकार आचार्यत्रय कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र एवं जयसेन के वचनों से भी अकलंकदेव के इस मत की पुष्टि होती है कि शुभोपयोग के स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव भी। .