Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 236
________________ अकलंकदेवकृत आप्तमीमांसाभाष्य एवं लघीयस्त्र्य के उद्धरणों का अध्ययन 197 अन्य बहुत से ग्रन्थों में भी उद्धृत मिलता है।' - ५४वीं कारिका की विवृति में “तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादि” वाक्यांश ग्रहण किया गया है। यह अंश धर्मकीर्तिकृत न्यायबिन्दुप्रकरण की आर्यविनीतदेवकृत न्यायबिन्दुविस्तर टीका का है। मूल वाक्य इस प्रकार है-३ तिमिराशुभ्रमण- नौयान-संक्षोभाद्यना-हितविभ्रममिति। ___ कारिका ६५ के उत्तरार्ध रूप में एक वाक्य “वक्त्रभिप्रेतमात्रस्य सूचकं वचनंत्विति" उद्धृत किया है। जिसे मूल कारिका का अंश बना लिया गया है। इसके मूलस्रोत की जानकारी नहीं मिल सकी है। कारिका ६६-६७ की विवृति के अन्त में लघीयस्त्रय में “ततः तीर्थकरवचनसंग्रहविशेष- प्रस्तारमूलव्याकारिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकौ” आदि वाक्य आया है।' यह वाक्य आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतितर्क की तीसरी गाथा की संस्कृत छाया है। सन्मतितर्क की मूल गाथा 'निम्न प्रकार है तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासिं।। आप्तमीमांसाभाष्य में अकलंक ने उमास्वाति, समन्तभद्र, धर्मकीर्ति, आर्यविनीतदेव आदि आचार्यों के ग्रन्थों से वाक्य, वाक्यांश या उद्धरण लिये हैं। इसी तरह लघीयस्त्रय मूल एवं विवृति में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, वार्षगण्य और सिद्धसेन आदि आचार्यों. के ग्रन्थों से वाक्य या वाक्यांश उद्धृत किये गये हैं। .. . अकलंक की उपर्युक्त दोनों कृतियों में मूलतः दार्शनिक विषयों का विवेचन है अतः यह स्वाभाविक है कि उनमें दार्शनिक ग्रन्थों के ही उद्धरण या वाक्यांश मिलें। इसीलिए प्रायः सभी उद्धरण दार्शनिक/तार्किक ग्रन्थों से लिये गये मिलते हैं। .. उपर्युक्त विवेचन से पता चलता है कि अकलंकदेव ने अपने समय के अथवा अपने समय से पूर्व के प्रसिद्ध तार्किकों /लेखकों के मत की आलोचना/समीक्षा की है १. यह वाक्य आप्तपरीक्षा पृ० ४२, सिद्धिविनिश्चय टीका पृ० ३०६ए, सन्मति टीका पृ०५१०, स्याद्वाद रत्नाकर पृ० १०६८, प्रमाणमीमांसा पृ० ३४, शास्त्रवार्तासमुच्चय पृ० १५१ए, अनेकान्तजयपताका पृ० २०७, धर्मसंग्रहणी पृ० १७६बी, बोधिचदियावतार पृ० ३६८, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २१६, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ३५५, ५०२, स्याद्वाद रत्नाकर पृ० ७६६, न्यायविनिश्चय विवरण पृ० १६ बी, स्याद्वादमंजरी पृ० २०६ आदि में उद्धृत मिलता है। २. लघीयस्त्रय, कारिका ५४ विवृति ३. न्यायाबिन्दुप्रकरण सटीकम् १/६ पृ० २६, सम्पादक- श्री द्वारिकादास शास्त्री, बौद्धभारती, वाराणसी, सन् १९८५ ४. लघीयस्त्रय, कारिका ६६-६७ विवृति ५. सन्मतितर्कप्रवरण भाग- २, गुजरात पुरातत्व मन्दिर, संवत् १९८२, १/३, पृ० २७१

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