Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

Previous | Next

Page 209
________________ जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान तरहं विज्ञानवाद में पूर्णचित्त का नाश और चित्त का उत्पाद होता है । इस प्रकार चित्त की संतति अनादिकाल से चलती आ रही है। जैन द्रव्यवादी हैं । बौद्ध पर्यायवादी हैं । बौद्ध पर्यायवाद में ज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है, परन्तु जैन द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुवादी होने के कारण ज्ञान को जीव द्रव्य का गुण मानते हैं और इसी गुण की विविध अवस्थाओं को पर्याय। 170 आलयविज्ञानवादी सुख-दुःख को विपाक नहीं मानते, आलयविज्ञान ही उनकी दृष्टि में शुभाशुभ कर्मों का विपाक है।' अतएव सुख और ज्ञान में भेद नहीं है। धर्मकीर्ति भी सुखादि को ज्ञानरूप सिद्ध करते हैं । जैनाचार्य इसे द्रव्यार्थिकनय दृष्टि से ही उपयुक्त मानते हैं। उनके अनुसार चेतन आत्मा से अभिन्न ऐसे ज्ञान और सुख का चेतनत्वेन अभेद हो सकता है, परन्तु पर्यायनय की अपेक्षा से ज्ञान और सुख ऐसे दो अत्यन्त भिन्न पर्याय एक ही आत्मा के हैं। अतएव ज्ञान और सुख का ऐकान्तिकृतादात्म्य नहीं। सुख आह्लादनाकार है और ज्ञान मेय-बोधनरूप है। सुख होता है सवेद्य नामक अदृष्ट के उदय से और ज्ञान होता है ज्ञानावरणी आदि कर्मों के क्षयोपशमादि से। यह भी नियम नहीं कि अभिन्न कारणजन्य होने से ज्ञान और सुख अभिन्न ही हैं, क्योंकि कुम्भादि के भंग से उत्पन्न होने वाले शब्द और कपालखण्ड में किसी भी प्रकार से ऐक्य नहीं देखा जाता। आत्मा ही उपादान कारण है, और वही ज्ञान और सुख रूप से परिणत होता है। अतएव ज्ञान और सुख का कथंचित् भेद होने पर भी आत्मा से उन दोनों का अत्यन्त भेद नहीं है । सांख्यों ने सुखादि को प्रकृति का परिणाम माना है, अतएव अचेतन भी। किन्तु जैन - बौद्ध समान रूप से सुखादि को चैतन्य रूप से ही सिद्ध करते हैं और स्वसंविदित भी । योगाचार में विपरीत ज्ञान को आत्मख्याति माना है। उसका कहना है कि “सीप में यह चांदी है” ऐसा जो प्रतिभास होता है, वह ज्ञान का ही आकार है, जो अविद्या वासना के बल से बाहर प्रतिभासित होता है । अतः इसे आत्मख्याति कहा जा सकता है। इस दृष्टि से पृथक्जनों के सब व्यवहार वासनामूलक होने से परमार्थतः मिथ्या हैं। परन्तु जैन दार्शनिक इसका खण्डन करते हैं कि यह आत्मख्याति तभी मानी जा सकती १. त्रिंशिका विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि, पृ० १५४ २. प्रमाणवार्तिक, २-२५१ ३. अष्टसहस्री, पृ० ७८, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १२६; स्याद्वादरत्नाकर पृ० १७८ ४. न्यायावतार वा० वृत्ति, पृ- २०; प्रमाणवार्तिक, २-२३८, तत्त्वसं०- ३६, त्रिंशिका विज्ञप्ति, पृ० १५५, अष्टसहस्री पृ० ७८ ५. प्रमाणवार्तिक, २-३३६; त्रिंशिका विज्ञप्ति० पृ० १७४

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238