Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 208
________________ विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार 169 प्रथम सात विज्ञानों को प्रवृत्ति विज्ञान कहते हैं। आलयविज्ञान में उनका अविर्भाव होता है और उसी में वे विलीन हो जाते हैं। असंग इसे संसार की प्रवृत्ति और निर्वृत्ति का कारण मानते हैं। आर्यसन्धिनिर्मोचन के अनुसार यह आदान विज्ञान है, सूक्ष्म है, गंभीर है, समस्त धर्मों के बीजों (वासनाओं) का आश्रय है। उदक द्वारा प्रवाहित तृण काष्ठ आदि के समान प्रवृत्तिवान् है। इसे 'आत्मा' समझना भ्रामक है।' आलयविज्ञान में वासनायें विद्यमान रहती हैं। उनका परिपाक हो जाने पर ही सम्बद्ध विज्ञान की उत्पत्ति होती है। यद्यपि बाह्य पदार्थ की सत्ता नहीं है, फिर भी अनादिकालीन वासना के कारण विज्ञान का बाह्यार्थ रूप से प्रतिभास होता है उसी प्रकार जिस प्रकार एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमाओं का प्रतिभास हो जाता है। किसी पदार्थ की उत्पत्ति के समय ग्राह्य (घट, पट आदि), ग्राहक (ज्ञाता) और ज्ञान्-इन तीन बातों की प्रतीति होती है। ये तीनों एकाकार विज्ञान के ही परिणाम हैं। इसी से संसार के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं। आलयविज्ञान अव्याकृत है, अनित्य है, संस्कृत है, वस्तुरूप है, सत् है, स्वलक्षण है, निर्विकल्प ज्ञानात्मक है, स्वसंवेदन है, चित्त है, परतन्त्रलक्षण है, संवृतिसत्त्व है, तद्नुसार समस्त पदार्थ तीन श्रेणियों में विभक्त हैंपरिकल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पन्न। ये पदार्थ परस्पर भिन्न होते हैं। चूंकि ज्ञान वासनाओं से दूषितं रहता है, इसलिए वस्तुओं का आभास ग्राह्य-ग्राहक इस के रूप . में होता है जो मिथ्या है अर्थात् बह्यार्थ परिकल्पित है, अलीक है। बाह्यार्थ की सत्ता को ‘मानने वाले वैभाषिक और सौत्रान्तिक के मत में आलयविज्ञान को मानने की . आवश्यकता नहीं होती है। आचार्य भावविवेक ने तो माध्यमिक हृदय में आलयविज्ञान को आत्मा के सिद्धान्त से अभिन्न मानकर उसकी आलोचना भी की है। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने माध्यमिकावतारवृत्ति में इसे ईश्वर की मान्यता के समकक्ष रखा है, इस अन्तर के साथ कि आलयविज्ञान अनित्य है और ईश्वर नित्य है। ... आलयविज्ञान एक चेतना है। चित्त, मन और विज्ञान उसी के नामान्तर हैं। यह लगभग वह सबं काम करता है, जो बौद्धेतर दर्शनों में आत्म तत्त्व करता है। जैनाचार्यों ने आलयविज्ञान को आत्मा के रूप में ही देखा है परन्तु विज्ञानवाद उसे उस रूप में नहीं मानता, उसे वह चित्तसंतति के रूप में देखता है। जैनदर्शन में ज्ञान पर्याय प्रत्येक क्षण में बदलते रहते हैं और पूर्वज्ञान के बाद उत्तर ज्ञानपर्याय उत्पन्न होता है। उसी १. आदानविज्ञानगभीरसूक्ष्मो ओजो यथा वर्तति सर्वबीजो। . बालान् एषो मयि न प्रकाशितो पा हैव आत्मा परिकल्पयेयुः ।। आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र, तिब्बती कंजूर, पु० सं० ५०, त्रिंशिका भाष्य पृ० १८ २. तत्र सवसाक्नेशिकधर्मवीजस्थानत्वात आलय - त्रिशिंका भाष्य पृ० १.

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