Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 211
________________ 172 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान चक्षुर्विज्ञान आदि का निमित्त होता है। जैनदर्शन में अर्थपर्याय ही शक्ति के नाम से व्यवहत है। वस्तु की अनीन्द्रिय पर्याय अर्थपर्याय और स्थूल पर्याय व्यञ्जनपर्याय है। वह द्रव्य रूप से नित्य और पर्यायरूप से अनित्य है। बौद्धदर्शन में शक्ति पदार्थ का स्वभाव होने से अप्रत्यक्ष नहीं है। जैनदर्शन इसे अनेकान्तात्मक दृष्टि से विचारकर शक्ति को द्रव्य रूप से प्रत्यक्ष और पर्याय रूप से अप्रत्यक्ष मानता है।' ___ वसुबन्धु ने विज्ञानाद्वैतवाद को सिद्ध करने के संदर्भ में बाह्यार्थ का निराकरण किया है। बाह्यार्थ के विषय में उन्होंने तीन विकल्प रखे हैं-न वह एक है अर्थात् अवयवी है, न वह परमाणुवक्षः अनेक है और न वह संहति रूप है क्योंकि परमाणु, सिद्ध ही नहीं होता। ___ वैशेषिकों द्वारा मान्य अवयवी के संदर्भ में उठाये इन तीनों पक्षों का खण्डन किया और उसे परमाणुपुञ्ज माना। यह परमाणुपुञ्ज या संचित तत्त्व विज्ञानवाद की दृष्टि में अवयवों से कोई भिन्न नहीं है, क्योंकि उन अवयवों को हटाने पर कोई संचिताकार विज्ञान उत्पन्न नहीं होता इसलिए संचित की द्रव्यतः कोई सत्ता सिद्ध नहीं होती। .. जैनों के अनुसार अवयवी नियमतः कार्य हो यह आवश्यक नहीं। आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय- ये द्रव्य नित्य होते हुए भी सावयव हैं। घट-पटादि पुद्गल स्कन्ध अनित्य होते हुए भी सावयव हैं। जैन और बौद्धमत में यह भेद है कि परमाणुपुञ्ज से अतिरिक्त स्कन्ध की स्वतंत्र सत्ता बौद्ध के मत से नहीं है। जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्य अणुरूप भी है और स्कन्ध रूप भी है। वहां अवयव-अवयवी का भेदाभेद है अर्थात् कथंचित् तादात्म्य है। बौद्ध क्षणिकवादी हैं अतः उन्हें यह मत स्वीकार्य नहीं। इतना स्पष्ट करने के बाद यह तथ्य स्थापित हो जाता है कि बौद्धों की चित्त संतति में चित्तक्षण एकान्त क्षणिक है। क्षणिक चित्तों का उत्तरोत्तर उत्पाद निरन्तर १. त्रिंशिका विज्ञप्तिता, पृ० २७० २. स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ३०६ ३. तत्त्वसंग्रह, का० १६०७ ४. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ०६० १. विंशतिका विज्ञप्ति० का०११ ६. त्रिंशिका विज्ञप्ति०, पृ० १०७ ७. अणवः स्कन्धाश्च, तत्वार्थसूत्र, ५-२५ ८. तत्त्वार्थश्लोक पृ० १२२

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