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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
प्रमेयरत्नमाला (३१५) में लघीयस्त्रय तथा न्यायविनिश्चय को उद्धृत किया है । इन्होंने अकलंकोक्त न्याय का श्रद्धापूर्वक समर्थन किया है।
वादिदेवसूरि :
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स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरि ( ई० १०८६ - ११३०) ने अकलंक वचनाम्भोधि से उद्धृत परीक्षामुख सूत्र के आधार से प्रमाण - नयतत्त्वालोकालंकार की रचना की है तथा उसकी स्याद्वादरत्नाकर टीका भी स्वयं ही लिखी है । इनके प्रमाणनयतत्त्वा लोकालंकार में लघीस्त्रत स्ववृत्ति के वाक्य उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। स्याद्वादरत्नाकर में इन्होंने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय का एक वाक्य उद्धृत किया है। इन्होंने अकलंक और अकलंक के टीकाकारों के वाक्य - रत्नों से रत्नाकर की खूब वृद्धि की है। इन्होंने अकलंक न्याय की मूल व्यवस्थाओं को स्वीकार करके हेतु के भेद - प्रभेद आदि में उसका विस्तार भी किया है।
हेमचन्द्र -
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ( ई० १०८८ - ११७३ ) को अकलंकवाङ्मय में सिद्धिविनिश्चय बहुत प्रिय था । इसमें से उन्होंने प्रमाणमीमांसा में दो श्लोक उद्धृत किये हैं। अकलंकदेव के द्वारा प्रतिष्ठापित अकलंक न्याय के ये समर्थक और विवेचक थे । मलयगिरि :
सुप्रसिद्ध आगम - टीकाकार आ० मलयगिरि ( ई० ११वीं १२वीं सदी) हेमचन्द्र के सहबिहारी थे। इन्होंने आवश्यकनिर्युक्ति टीका में अकलंकदेव के नय वाक्य में भी स्यात् पद का प्रयोग करना चाहिए, इस सिद्धान्त से असहमति प्रकट की है। इसी प्रसंग में उन्होंने लघीयस्त्रय वृत्ति से 'नयोऽपि तशैव सम्यगेकान्त विषयः स्यात् ' यह वाक्य उद्धृत किया है। अकलंकदेव ने प्रमाण वाक्य की तरह नय वाक्य में भी नयान्तरसापेक्षता दिखाने के लिए 'स्यात्' पद के प्रयोग की आवश्यकता बताई है। आ० मलयगिरि का कहना है कि यदि नय वाक्य में 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है तो वह ‘स्यात्’ पद से सूचित अन्य अशेष धर्मों' को विषय करने के कारण प्रमाण वाक्य ही हो जाएगा। इनके मत से सभी नय मिथ्यावाद है किन्तु जब अकलंकोक्त व्यवस्था का समर्थन अन्य सभी विद्यानन्द आदि आचार्यों ने किया तो उपाध्याय यशोविजयजी ने तदनुसार ही उसका उत्तर 'गुरुतत्त्व विनिश्चय' में दे दिया है कि नय वाक्य में ‘स्यात्’ पद का प्रयोग अन्य धर्मों का मात्र सद्भाव द्योतन करता है। उन्हें प्रकृत वाक्य का विषय नहीं बनाता। मलयगिरि द्वारा की गई यह आलोचना इन्हीं तक सीमित रही है।