Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 186
________________ 'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रतिपादित मानवीय मूल्य अर्थात् जीव परस्पर उपकार करते हैं। भट्ट अकलंकदेव ने इस सूत्र को मानवीय मूल्य के रूप में रखा है। उनके अनुसार- परस्परशब्द कर्म व्यतिहार अर्थात् क्रिया के आदान-प्रदान को कहता है । स्वामी - सेवक, गुरु-शिष्य आदि रूप से व्यवहार परस्परो पग्रह है। स्वामी रुपया देकर तथा सेवक हित- प्रतिपादन और अहित - प्रतिषेध के द्वारा परस्पर उपकार करते हैं। गुरु उभयलोक का हितकारी मार्ग दिखाकर तथा आचरण कराके और शिष्य गुरु की अनुकूलवृत्ति से परस्पर के उपकार में प्रवृत्त होते हैं ।' स्वोपकार और परोपकार को अनुग्रह कहते हैं । पुण्य का संचय स्वोपकार है और पात्र की सम्यग्ज्ञान आदि की वृद्धि परोपकार है । 1 (३) मैत्री - सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद स्वामी ने “ परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषी मैत्री” अर्थात् दूसरों को दुःख न हो; ऐसी अभिलाषा रखने को मैत्री कहा जाता है भट्ट अकलंकदेव ने मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदन; हर प्रकार से दूसरों के दुःख न होने देने की अभिलाषा को मैत्री कहा जाता है। इसके लिए निम्न भावना भानी चाहिए क्षमयामि सर्वजीवान् क्षाम्यामि सर्वजीवेभ्यः, प्रीतिर्ये सर्वसत्त्वैः वैरंमे न केनचित् ।। अर्थात् मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूं; सब जीव मुझे क्षमा करें; मेरी सब जीवों से प्रीति है, किसी से वैर नहीं है; इत्यादि प्रकार की मैत्री भावना सब जीवों में करना चाहिए । 147 (४) प्रमोद - मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आह्लाद, रोमाञ्च, स्तुति, सद्गुण-कीर्तन 1. आदि के द्वारा प्रकट होनें वाली अन्तरंग की भक्ति और राग प्रमोद है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्राधिक गुणीजनों की वन्दना, स्तुति, सेवा आदि के द्वारा प्रमोद भावना भानी चाहिए। (५) अनुकम्पा - “सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा”- अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्रीभाव १. तत्त्वार्थवार्तिक, ५/२१/१-२ २. वही, ७/३८ / १ ३. सर्वार्थसिद्धि, ७/११/६८३ ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/११/१ ५. वही, ७/११/८ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/११/१-४ ७. वही, ७/११/५-७ ८. तत्त्वार्थवार्तिक, १/२/३०

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