Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

Previous | Next

Page 201
________________ 162 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान . . सर्वार्थसिद्धि के उक्त प्रकरण वाक्यों को तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वप्रथम दो वार्तिकों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है-दृशेरालोकार्थत्वादभिप्रेतार्था संप्रत्यय इति चे? न; अनेकार्थत्वात् ।।३।।, मोक्षकारणप्रकरणाच्छ्रद्धानगतिः अर्थात् 'दर्शन' दृशि धातु से बना है और दृशि धातु का अर्थ देखना है। अतः क्या दर्शन का श्रद्धान अर्थ नहीं हो सकता? इस प्रश्न के भी समाधान में वही कहा है कि "धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए उनमें से श्रद्धान अर्थ भी ले लिया जायेगा। चूंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है, . अतः दर्शन का देखना अर्थ इष्ट नहीं है, किन्तु तत्त्वश्रद्धान अर्थ ही इष्ट है। . आगे जीव, अजीव, आसव आदि सात तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाले चतुर्थ सूत्र में जीवादि तत्त्वों की जो परिभाषायें आ० पूज्यपाद ने इस सूत्र के विवेचन में लिखी प्रायः उन्हीं सभी वाक्यों को वार्तिक रूप में भाष्य सहित प्रस्तुत करते हुए इकतीस वार्तिक में इस चतुर्थ सूत्र का विवेचन पूरा करते हुए चतुर्थ आह्निक की भी समाप्ति की है। छठे “प्रमाणनयैरधिगमः” सूत्र में भी “अम्यर्हितत्त्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपातः। अभ्यर्हितत्त्वं च सर्वतो वलीयः” आ० पूज्यपाद के इन दो वाक्यों को आ० अकलंकदेव ने प्रथम वाक्य को वार्तिक और दूसरे वाक्य को उसके भाष्य के प्रारम्भिक अंश के रूप में प्रस्तुत किया __अष्टम सूत्र “सत्संख्या" आदि के विषय में तो पहले ही बतला दिया गया है कि जहाँ इस सूत्र का काफी विस्तृत विवेचन आ० पूज्यपाद ने किया है वहीं आ० अकलंक देव ने आ० पूज्यपाद की अपेक्षा तेईस वार्तिकों में अल्परूप में विवेचन प्रस्तुत किया है। ___ इसी तरह अन्य सूत्रों के प्रतिपाद्य विषयों का विद्वत्तापूर्ण रूप में सर्वार्थसिद्धि के अनुसार विस्तार से करते हुए आ० अकलंकदेव ने २१वें सूत्र “भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्" के विवेचन में आ० पूज्यपाद ने लिखा है “भव इत्युच्यते। को भवः? इसी को आ० अकलंक ने इस प्रकार लिखा है “भव इत्युच्यते। को भवो नाम ? इसके बाद सर्वार्थसिद्धिकार की भव की परिभाषा “आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मनः पर्यायो भवः" अर्थात् आयु नामकर्य के क्षय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती हैं, उसे भव कहते हैं। आ० अकलंक ने इसे ही वार्तिक रूप में प्रस्तुत करके इसका भाष्य लिखा है। __सर्वार्थसिद्धि के २२वें सूत्र "क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्" का जो विवेचन है उसके प्रारम्भिक अंश को आ० अकलंकदेव ने पूरा प्रथम अनुच्छोद ही जहाँ का तहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में रखा है। जहाँ अवधिज्ञान के छह भेदों की चर्चा आ०

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238