Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 205
________________ 166 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान स्थापित किया। असंग और वसुबन्धु ने उसे और आगे बढ़ाया। वसुबन्धु की विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि और दिङ्नाग की आलम्बन परीक्षा में इस तथ्य को और अधिक विस्तार दिया गया, जिसे हमें स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। असंग ने महायान सूत्रालंकार में योगाचार विज्ञानवाद का प्रतिपादन किया है। नागार्जुन से प्रभावित रहने के बावजूद वे आगे बढ़ते हैं। पारमार्थिक दृष्टि से यद्यपि उनके दर्शन में संसार और निर्वाण के बीच कोई भेद नहीं था, पर उन्होंने जिस आत्मा का खण्डन किया है वह जीवात्मा है, परमात्मा नहीं। जीवात्मा ही महात्मन् में विलीन हो जाती है। यह महात्मन् अथवा परमार्थ सत् स्वयं प्रकाश, प्रकृति प्रभास्वर, स्वभाव. से ही विशुद्ध और निर्मल हैं, किन्तु हमारे अज्ञान के कारण दूषित-सा प्रतीत होता है। यही चित्त धर्मधातु, बुद्धता और तथता है, आत्मा और दृश्य जगत् मिथ्या हैं। सामान्य जन का चिन्तन ज्ञान और ज्ञेय के द्वित्व पर ही आधारित है। भगवान् बुद्ध ने अपने उपाय कौशल से उसे इस तत्त्व का भान कराया है। उन्होंने बाह्य वस्तुओं की सहायता से तत्त्व के स्वरूप को स्पष्ट किया है। महायान सूत्रालंकार (६-५, १३.१६)। वसुबन्धु ने असंग के परममहात्मन् या चित्त की स्थापना को तार्किक आधार दिया, उन्होंने विज्ञप्तिमीमांसा को ही एक मात्र सत् माना। मृगमरीचिका के समान अज्ञानता के कारण ही दृश्य जगत् का अस्तित्व दिखाई देता है। वस्तुतः दृश्य जगत् का वास्तविक अस्तित्व है नहीं। सविकल्प-बुद्धि की कोटियों द्वारा निर्मित जगत् तत्त्वतः सत् नहीं है। विज्ञप्तिमात्रता या धर्मनैरात्म्य का सिद्धान्त सविकन्य बुद्धि द्वारा कल्पित कर्ता और कर्म, ग्राहक और ग्राह्य, दृष्टा और दृश्य के द्वन्द्व पर प्रतिष्ठित जगत् का खण्डन करता है, न कि विशुद्ध निर्विकल्प विज्ञप्तिमात्रता का। यह कल्पित जीवात्मा का खण्डन करता है न कि परमतत्व विज्ञप्तिमात्रता का, वसुबन्धु की यह विज्ञप्तिमात्रता लंकावकार के चित्तमात्र से काफी मिली-जुलती है। अन्तर यह है कि लंकावतार अन्यविज्ञान और चित्त को पर्यायवादी मानता है, जबकि वसुबन्धु के अनुसार यह ज्ञप्तिमात्रता से उद्भूत होता है। (विंशतिका वृत्ति, पृ०-१०) ___धर्मकीर्ति के अनुसार यह परमसत् विज्ञप्ति या बुद्धात्मा है। इसी के कारण जगत् की प्रतीति होती है। यही ग्राह्य-ग्राहक के रूप धारण कर जगत् की वस्तुओं के रूप में दिखाई पड़ता है (प्रमाणवार्तिक १-२-६२)। बाह्य वस्तुओं का जो ज्ञान हमें होता है, वह हमारे मन के संस्कार या वासना का फल है। जिस प्रकार पाण्डु रोगी को सारी वस्तुएं पीली दिखाई पड़ती हैं, यद्यपि वे पीली नहीं हैं, उसी तरह अविद्याग्रस्त होने के कारण हमें दृश्य जगत् की वस्तुएं दिखाई पडती हैं. यद्यपि उनका अस्तित्व

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