Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 204
________________ विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार 165 किया। इन सभी ग्रन्थों में जैनाचार्यों ने जैनेतर दार्शनिक मान्यताओं के पूर्वपक्ष को रखकर उनका अनेकान्तिक दृष्टि से सयुक्तिक खण्डन किया है। इस समय तक बौद्धदर्शन भी प्रस्थापित हो चुका था। जैन दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में उन सभी का पुरजोर खण्डन किया है । प्रस्तुत निबन्ध में हम अकलंक और उनके टीकाकारों द्वारा विज्ञानवाद की जो समीक्षा की गई उसे संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं । · बौद्धधर्म पदार्थ को शून्यात्मकता अथवा क्षणभंगुरात के कारण व्यापक नहीं मानता, पर जैनधर्म उसे उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक मानता है । चार्वाक भौतिकवादी है पर यथार्थवादी बौद्धधर्म में सचेतन और अचेतन - दोनों को सम्मिलित किया गया है। अचेतन के रूप में वहाँ 'रूप' स्वीकृत है जो जैनधर्म का एक प्रकार से पुद्गल है । यथार्थवादी वैभाषिक और सौत्रान्तिक परमाणुवादी हैं । आदर्शवादी उपनिषद् दर्शन यह विश्वास व्यक्त करता हैं कि ब्रह्म अथवा आत्मन् से संसार उद्भूत हुआ, उसी तरह जिस तरह अग्नि से चिनगारी निकलती है। उसे ब्रह्मपरिणामवाद कहा जाता है । • बौद्धधर्म प्रारम्भ में ही विषयीगत रहा है। वैभाषिकों ने अवयवी, नित्य और एकत्व या सामान्य पदार्थ को मात्र कल्पना माना है, जबकि सौत्रान्तिकों ने उसे प्रज्ञप्तिसत् स्वीकार किया है। अतीत और भविष्य गत धर्म (क्षण) जिन्हें यथार्थ कहा है "वैभाषिकों ने, सौत्रान्तिकों ने उन्हें मात्र आदर्श कह दिया है। क्षणभंगुरतावाद की चरम परिणति के पूर्व बाह्यार्थवादी सौत्रान्तिकों ने पदार्थ को - अनुमानगम्य माना इससे पदार्थ की नित्यता को अस्वीकार करने का मार्ग और भी प्रशस्त हो गया। उसने पदार्थ को जानने वाले चित्त या विज्ञान को स्वीकार किया । माध्यमिक के विपरीत खड़े होने वाले इस वर्ग को विज्ञानवाद कहा गया । यह विज्ञानवाद माध्यमिकों के बाह्य पदार्थ की सत्ता को अस्वीकार करते हुए परमार्थ सत् और संवृति सत् के रूप में उसे स्वीकार करता है । धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती साहित्य में विज्ञानवाद की इस विचारधारा को देखा जा सकता है। सन्धि निर्मोचन, सूरंगमा, लंकावतार आदि सूत्र विज्ञानवाद की दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं, विशेष रूप से लंकावतार । वहाँ नाम और निमित्त को बिल्कुल 'परिकल्पित' माना गया, विकल्प को 'परतन्त्र' कहा गया, विज्ञान में सादे पदार्थों का संग्रह हो जाता है और पदार्थ का अस्तित्व पटतन्त्रमय बन जाता है तब सम्यग्ज्ञान और तथता 'परिनिष्पन्न' हो जाते हैं । मैत्रेयनाथ के अलंकार ग्रन्थों ने महायान सूत्रों और योगाचार सम्प्रदाय से सम्बन्ध

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