Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 185
________________ 146 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान • इस अंतरात्मा की पहचान, उसकी सत्ता का आभास आत्मशक्ति के परिज्ञान से होगा और तभी मानवीय मूल्यों या गुणों की पहचान सम्भव होगी। 'अज्ञेय' की यह कविता हमें उसी आत्मशक्ति का आभास कराती है, जिस आत्मशक्ति के बल पर आत्मज्ञान या आत्मलाभ या मोक्ष-प्राप्ति का लक्ष्य तत्त्वार्थवार्तिककार को अभिप्रेत है "शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूं, मैं भी असीम हूं। एक असीम बूंदअसीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती है,” एक असीम अणुउस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है । अपने भीतर समा लेना चाहता है।" उक्त 'मानव' सम्बन्धी विवेचन में जहाँ लौकिक और भौतिक धरातल पर मनुष्य को खड़ा करने की चेष्टा की गयी है, वहीं भट्ट अकलंकदेव की विचारधारा प्राणी (मानव) को भौतिक धरातल से आध्यात्मिक धरातल पर खड़ा करना चाहती है, क्योंकि उनके विचारों के पीछे (उनके ही अनुसार)- “संसार सागर में डूबते हुए अनेक प्राणियों के उद्धार की पुण्य भावना है"२ जो प्रथम सूत्र ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'२ से अन्तिम सूत्र तक चलती है। अतः उन्होंने उन्हीं मानवीय मूल्यों को 'तत्त्वार्थवार्तिक' में स्थान दिया है जो मानव को मानवता के चरम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचा सकें, तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित. मानवीय मूल्य इस प्रकार हैं (१) मद्य-मांस-मधु का निषेध- त्रस घात की निवृत्ति के लिए मधु और मांस को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। प्रमाद के नाश करने के लिए हिताहित विवेक को नष्ट करने वाली मोहकारी मदिरा का त्याग करना अत्यावश्यक है। विवेक की रक्षा, अहिंसापालन और क्रूरता से बचाव के लिए मद्य-मांस-मधु का निषेध कर स्वपरोपकार करना चाहिए। (२) परस्परोपग्रह- आचार्य उमास्वामी के अनुसार- ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्" १. 'हंस' के अप्रैल १६३६ के अंक में प्रकाशित कविताः अज्ञेय २. तत्त्वार्थवार्तिक, १/१ ३. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१ ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/२१/२६ ५. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२१

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