Book Title: Jain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 195
________________ 156 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान अपाकुर्वन्ति यदवाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम्। कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दीनमस्यते।। ज्ञानार्णव १/१५ . अर्थात् जिनकी शास्त्र-पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ। आ० पूज्यपाद विरचित निम्नलिखित रचनायें उपलब्ध हैं- दशभक्ति, जन्माभिषेक, सर्वार्थसिद्धि(तत्त्वार्थवृत्ति), समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण तथा सिद्धिप्रिय स्तोत्र। ___आ० पूज्यपाद और उनकी सर्वार्थसिद्धि तथा आचार्य अकलंकदेव और उनके तत्त्वार्थवार्तिक का तुलनात्मक अध्ययन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि दोनों आचार्यों ने अनेक ग्रन्थों की टीकायें लिखी हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र पर ही दोनों आचार्यों ने बेजोड़ टीकायें लिखी हैं। सर्वार्थसिद्धि नाम से प्रसिद्ध तत्त्वार्थवृत्ति संस्कृत गद्य एवं प्राञ्जल भाषा में लिखित मध्यम परिमाण वाली ऐसी वृहद् वृत्ति है, सूत्रानुसारी सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ दार्शनिक विवेचन एवं पारिभाषिक शब्दों की सुन्दर परिभाषाओं से भरपूर है। इसीलिए यह टीकाग्रन्थ होने पर भी मौलिक एवं स्वतंत्र ग्रन्थ के समकक्ष माना जाता है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र और उनके पद का निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया है। इस टीका ग्रन्थ में अनेक मौलिक उद्भावनायें भी आचार्यश्री ने प्रस्तुत की हैं। प्रारम्भ में "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगलाचरण करके इसकी व्याख्या किये बिना “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस प्रथम सूत्र के व्याख्यान प्रसंग के पूर्व भूमिका के रूप में एक बहुत ही सुन्दर उत्थानिका प्रस्तुत की गई है, जो इस ग्रन्थ और ग्रन्थकार द्वारा ग्रन्थ-लेखन के उद्देश्य को प्रस्तुत करती है। उत्थानिका के बाद प्रथमसूत्र लिखकर फिर इसका विवेचन किया गया है। प्रथम अध्याय के छठे सूत्र “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र की व्याख्या में प्रमाण के स्वार्थ और परार्थ भेद तथा सकलादेश और विकलादेश की चर्चा आचार्य पूज्यपाद के द्वारा मौलिक रूप में प्रस्तुत की गयी है। “सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शनकालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च" नामक अष्टमसूत्र की व्याख्या तो इतनी विशद है कि इसे करणानुयोग का एक स्वतंत्र लधुग्रन्थ कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। इसमें षटखण्डागम आदि ग्रन्थों के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र में जिन गुणस्थान, मार्गणाओं आदि विषयों का अभाव था, उन विषयों की पूर्ति यहाँ विस्तार से की गयी है। इसी तरह अन्य सभी अध्यायों में अनेक विषयों को मौलिक रूप में प्रस्तुत किया है। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री ने लिखा है कि “मौलिक तथ्यों के समावेश की दृष्टि से

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