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सम्पादकीय टिप्पणी
एक टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है। शैली की दृष्टि से यह मूर्ति प्रारंभिक मध्यकाल की है पर उसके निर्माण का स्थल अज्ञात है; संगमरमर की होने से वह पश्चिम भारत से संबद्ध हो सकती है पर संगमरमर का प्रयोग अफगान-स्मारकों में भी हया है।
प्रथम खण्ड में पृष्ठ ११ पर पाद-टिप्पणी ४ में मैंने लिखा था कि महाराष्ट्र में उस्मानाबाद के निकट स्थित धाराशिव (धरसिन्व) गुफाएँ-मूलतः बौद्ध धर्म से संबद्ध रही हो सकती हैं जिनका
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रेखाचित्र 10. करेज एमीर (अफगानिस्तान) : तीर्थंकर उपयोग जैनों ने बाद में किया। इसपर कुछ मतभेद सामने आया है जिससे इस विषय पर पूनविचार की आवश्यकता पड़ी है। स्व. धवलीकर और मिराशी ने इस प्रश्न पर विचार किया है। प्रथम विद्वान् तो इन गुफाओं के मूलतः बौद्ध होने की ही पुष्टि करते हैं, किन्तु दूसरे विद्वान् इसे
1 अपनी टिप्पणी में डॉ० फ़िशर लिखते हैं कि यह चित्र काबुल के करेज-एमीर में लिया गया था जहां अफ़गानिस्तान
के राजा ने नये भवनों का निर्माण कराया था और उन्हें राजघराने के संग्रहों से लायी गयी मूर्तियों से प्रलंकृत किया था। प्रो० डेनियल स्क्लुम्बर्गर से प्राप्त सूचना के आधार पर डॉ० फ़िशर लिखते हैं कि यह मूर्ति ग़ज़नी में अप्रैल 1955 में एक पुरावस्तुओं की दुकान में लायी गयी थी। डॉ. फ़िशर ने दो और जैन कला-कृतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है जो भारत-पाक सीमा के उस पार से प्राप्त हुईं। एक है संगमरमर की तीर्थंकर-मूर्ति जो अफगानिस्तान के बमियान नामक प्रसिद्ध बौद्ध स्थान से लायी गयी (क्लॉज फिशर, वॉयस ऑफ अहिंसा 1956, अंक 3-4), और दूसरी है पूर्वी तुकिस्तान के तुफ़ोन प्रोसिस की गुफाओं में एक जैन मुनि का चित्रांकन (ए, वॉन ले कॉक, दि बुद्धिस्टिश्च स्पातन्तिक, 3 चित्र 4; ई. वाल्वश्च्मित, गन्धार-कुत्श्च-तुर्फान, लीपजिग,
1925, चित्र 43 बी). 2 धवलीकर (एम के). जर्मल प्रॉफ वि एशियाटिक सोसायटी मॉफ बाम्बे, 39-40. 1964-65, 4 183-90, और
जर्नल मॉफ इण्डियन हिस्ट्री, 46. 1968.1 405-12.
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