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भृगु-पुरोहित पांकर, नन्हे-नन्हे बच्चों को फुसला-फुसला कर पकड़ ले जाते हैं । तब चे उन्हें मार डालते हैं। यों, वे पुरोहित, नित्य अपने चालकों को डराने, धमकाने और चमकाने लगे । वालकों का हृदय कोमल तो पहले ही होता है। उन्हें जैसाभी कोई समझा दे, वे ठीक वैसा ही मानने, जानने और करने लग जाते हैं। साधु-हदय वालकों ने, अपने पिता के हित-प्रद उपदेशों को, हृदय से मानने का वचन अपने पिता को दिया । यही समय है, जब कि मनुष्य, अपनी सन्तानों को जैसीचाहे वैसी बना सकता है। दोनों कुमारों के मन में भय का भूत वैठ गया।
होनी हो कर ही के रहती है। कहीं भी भाग कर चसो भावी से पिंड छूट नहीं सकता। अचानक एक दिन दो मुनि (गुरु-शिष्य ) उधर, मार्ग भूल कर आ निकले । उन्हें देखते ही पुरोहितजी के होश-हवाश खट्टे हो गये । वे मन ही मन सोचने लगे, कि "हाय ! इन से अपना पीछा छुड़ाने के लिए ही तो वन-वन की नाक हम छान रहे हैं। ये तो यहाँ भी श्रा निकले । कहीं पुत्रों पर इन की परछाई न पड़ जावे। नहीं तो मेरी वुढ़ौती की वैशाखी टूट जावेगी। बड़ी काठनाइयों से,इस बुढ़ापे में, दोनों पुत्रों को मैं ने पाया है । अतः छाछ-पानी जो भी इंन्हें चाहिए, देकर, जल्दी से जल्दी यहाँ से विदा 'इन्हें करूँ।"
फिर आगे चल कर उन्होंने दोनों साधुओं को प्राचित आहरपानी बहराया। " मेरे दोनों पुत्र बड़े ही क्रोधी, लड़ाकू और 'उदंड है, आप जल्दी से जल्दी, वन की ओर पधार जावे।" यह कह कर, उन्हें वहाँ से तत्काल ही वन की ओर विदा कर दिया। पुरोहितजी के इतना उधेड़-बुन करने पर भी,
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