Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 163
________________ श्रमर कुमार दो धक्के दक्षिणा में वह पाने लगा था। इसकी स्त्री की तानाऋशी ने तो, इस के हृदय को और भी एक-दूक कर दिया था। राज घोषणा के सुनते ही, अपनी स्त्री के पास वह दौड़ा गया। गौर, बोला, " तु प्रति दिन धन के लिए माथाकूट मुझ से करती हैं । ले, खोल छाती! और, तेरे चार पुत्रों में से एक को सौप राजा के हाथ ! बदले में, उसी के तौल का सुवर्ण, तेरे घर पाकर अभी पड़ा जाता है ! बोल ! हे हिम्मत ?" स्त्री की नस-नस फड़क उठी । धन की प्राप्ति के लिए अन्धा संसार क्या-क्या नहीं करता ! गरीर से गरीब और अमीर से अमीर हर एक चाहता है, रात-दिन प्रयत्न करता है, सत्य और शील, सद्गुण और सद्धर्भ,सभी का एक क्षण में खातमा वे कर सकते हैं, यदि, लक्ष्मी उन की बगल में अांन को लालायित हो उठे; अथवा उन की हो कर रहने भर की हाई ही सिर्फ वह भर ले। पति के प्रस्ताव का हृदय से समर्थन हो गया। पड़ोस में बैठे हुए अमर कुमार ही को राजा के हाथ वेच देने का निश्चय हुया। तदनुसार, दरवार को सूचित कर दिया गया । राजा तो टोह में पहले से था ही । तुरन्त सिपाही वहां आ धमके। अभागे कुमार को जबरन तुला पर चढ़ा दिया गया । और, वरावरी का सुवर्ण, राजा की ओर से ब्राह्मण के घर पहुंचा दिया गया । सिपाही अव उसे पकड़ कर ले जाने लगे । कुमार न संकड़ा नाच नाचे । रोया, चिल्लाया। पछाड़ खा कर गिर भी पड़ा। पिता को पुकारा । माता की मिन्नतें मानी । भाइयों को रक्षा के लिए पुकारा । गगन भेदी नाद किया । पर सव के सब उपाय एक सिरे से चेकार सिद्ध हुए । क्योंकि, यहां तो रक्षक ही भक्षक बन बैठे थे। 'सर्व गुणाः काचनमाश्रयन्ति' [१४७ ]

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