Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 185
________________ मेघ मुनि कम्णा के भाव से, उस छोट-से प्राणी की रक्षा करने के नाते, अपना वह पीय अधर में लटका रखनाही तुम ने उचित समझा। यू, पूरे-पूरे तीन दिनों तक, अपने तीन पैरों ही के बल, अपनी विशाल काया का भार संभालते हुए, शान्त-भाव से तुम खड़े रहे। पश्चात् . याग शान्त हुई। इधर-उधर से आये प. अन्य सभी पशु-पक्षी भी अपने दाना-पानी की खोज में, उठ-उठ कर वहाँ से चलते बने । यह देख कर, वह खरगोश भी वहाँ से खिसक गया । तुन ने भी तब अपने पाँव को भूमि पर टिकाने के लिए नीचे किया। किन्तु अचल रहने के कारण, खून का प्रवाह उस का वन्द हो चुका था। अतः वह अकड़ गया था। तब तुम और अधिक काल तक अपने को सँभाल न सके। घलाम स धरती पर गिर पड़े। उस समय तुम्हारेभावों में सोलह याना शुद्धता थी। सम-भावों से बेदना को सहते हुए, उसी काल, तुम मृत्यु का भी प्राप्त हो गये । और, वहाँ स सीधे तुम इस भव में श्राकर जन्म हो। उस भव में उस छोटे से एक प्राणी की प्राण रक्षा कर के दी, इस जन्म में तुम पक श्रेष्ठ राज-कुल में श्रा कर जन्म हो । तुम्हारे पर भव के ताप की तुलना में, फिर यह ताप तो पासँग के वरावर भी नहीं है। तय हे मेघ ! तुम अपने इस शरीर के एक छोटे से कष्ट को तो कट समझ ही क्यों रहे हो?" ___ भगवान् के इस बोध से मेघ मुनि की घाग्न खुनी। विचार फरत ही उन्हें 'जाति-स्मरण-शान ' हो पाया। भगवान् के कथनानुसार, तव तो अपने विगत की उस सारी घटना को, प्रत्यक्ष रूप से उन्हों ने देख भी लिया। वे भगवान् से वोले"भगवन, अब धागे से मैं ऐसे विचारों को कभी पास तक [१६७ ]

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