Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 184
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे के समीपस्थ, गंगा नदी के दक्षिण तट पर, बाँसों के वह वन में तुम रहा करते थे। प्रतिवर्ष, ग्रीष्मकाल के ग्रांगमन में, आँधियाँ चलतीं । वाँस टकरांत । श्रौर, सारे वन में दावानल उन से फैल जाती । उन दिनों प्राण-रक्षा करने में कितना घोर कष्ट तुम्हें उठाना पड़ता । साधारण जन-समुदाय उस कष्ट का अनुभव नहीं कर सकता । चार-चार के इस कष्ट ने तुम्हारे कानों को खड़ा कर दिया । इस कष्ट का अन्त कर देने का, तुम सभी ने पक्का मनसूबा एक दिन किया | गंगा-तट की सील-दार भूमि का पता तुम ने लगाया, जो चार वर्गकोस की लम्बी चौड़ी थी। अपनी सूँडा और पैरों से वहाँ की भूमि के सारे भाड़-खड़ों को उखाड़ तुम ने फेंका । सूड़ों में पानी भर-भर कर वहाँ छिड़काव लगाया। तब पैरों के चल उसे कई दिनों तक रौंदा। और, यूँ, उसे सदा के लिए एक सुन्दर और सपाट मैदान तुम ने उसे बना दिया । ग्रीष्म के प्रांत ही फिर दावानल भड़की । तब तुम सब के सब श्राकर, उस मैदान में, मण्डलाकार खड़े हो गये । चनैले अन्यान्य पशु-पक्षी भी वहाँ दौड़े श्राये । और यूँ, अपने प्राणों की रक्षा उन्हों ने की । अन्त में, प्राण-रक्षा के बहाने, एक खरगोश भी वहाँ था पहुँचा | परन्तु सारा मैदान खचाखच भर चुका था। पर, उसी समय, अपने शरीर को खुजलाने के लिए तुमने अपना एक पैर ऊपर किया । वस, खरगोश वहीं श्राकर दुबक रहा । शरीर को खुजला लेने के वाद, ज्यों ही धरती पर पैर तुम रख रहे थे, वहाँ एक खरगोश तुम्हें दिख पड़ा। उसी समय, तुम्हारी करुणा ने, उस के कँपकँपाते दर्द का हाथ पकड़ा। यही कारण था, कि तुम ने भी उस की प्राण-रक्षा करना उचित समझा। [ १६६ ]

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