Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 201
________________ सुधावक अरणकजी लगे थे। एक दिन अन्य वाणको ने इन के सामने प्रस्ताव रक्खा, कि जहाज़ों पर चार प्रकार का माल लाद कर, अपन सब के सब विदेशों को चलें । गर्मागर्म बहस हुई । अन्त में, प्रस्ताव सर्वानुमते स्वीकृत हो गया। शुभ मुहूर्त देखा गया। वणिक् लोग चम्पा से चलकर बन्दरगाह पर आ डटे। माल, जहाजों पर लाद दिया गया । पुष्प नक्षत्र के शुभ संयोग में जहाज़ विदेशों के लिए चल पड़े। ___ प्रस्थान के स्थान से पचासों कोस चल चुकने पर, समुद्र में एक घटना घटी। एक देव ने उस समय अरणक के धर्म की परीक्षा लेना चाही। अपनी माया का विस्तार उसने किया। यात की बात में प्रकृतिदेवी ने भी अपना रंग बदल दिया। असमय है. में बनघोर वृष्टि के चिन्ह आकाश में दिख पड़ने लगे । सूर्य छिपा; अन्धकार छाया, कड़क-कड़क कर विजलियाँ काँधने लगी।एक ही देव, अनेकों भयानक रूप धारण कर के आकाश में दिख पड़ने लगा। उसी देव के एक रूप ने, जो कापालिक के वेश में था, अरणकजी के सामने श्राकर, चीखते हुए कहा, " अरणक! सम्बल ! मैंने तेरा काम तमाम किया।" लपलपाती हुई तलवार को अरणकजी के सिर की और उसने फेंकी। अरणकजी हिमालय के समान अचल है।टस से मस भी वे न हुए मृत्यु के इस पाकस्मिक श्रालिंगन को फूलों की गुद-गुदी सेज उन्होंने समझा। सागारी-संन्यारा उन्हा ने तब धारण कर लिया। देव को श्ररणकजी का यह व्यापार रुखा लगा। वह और भी पास या धमका । कड़क कर वह उन से बोला, "अरे अरणक ! तु अपने धर्म से पतित होना,चाहे ठीक समझ, या न समझ, मैं [१७६]

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