Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 194
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मिला दिया। उसी जाति की,मुझ अवला का श्राप य अपमान करने को उतारू न हजिए!" इस लम्बी, चौड़ी, और हृदयवान् के हृदय को हिला मारनेवाली वाणी का भी कुमार के ऊपर कोई असर न हुआ। उन के कान पर जूं तक न रंगी । कुमार, मोह-मदिरा में इतने वे होश थे। उस के कारण उन्ह पूरे १०८ डिग्री का चुनार चढ़ा हुआ था। उस समय ये हित. कर चाते रुचतीं भी तो कैसे ? फिर भी कुटुम्ब के बड़े-बूढ़े सभी ने, कुमार को वारी-बारी से समझाने का अपना फ़र्ज अदा किया। जव किसी के कहने का कोई भी असर होता न देखा, तव तो लाचार हो कर, सेट ने अाखिरी उपाय ही अब लम्वन किया। वे नट के पास आये । सेठ नटराज से बोले, "भाई, जितना भी चाहे धन मुझ से ले लो । अपना जीवन एक जगह बैठ कर सुख-पूर्वक चिताओ । वदले में तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्र को दे दो।" सेठ की वात को सुनी-अनसुनी कर के. नट तमक उठा। वह बोला, "महाराज! आप बड़े है,सेठ है.तो अपने घर के है । में छोटा हूँ फिर भी अपने घर का शाहनशाह हूँ। वोल, ज़रा सम्हाल कर मुँह से वोलिए ! लड़की का पैसा लेना, मैं विष्टा खाना समझता हूँ। बेटियों के बदले पैसा! यह तो मैं ने श्राप ही के मुँह से अाज सुना! हाँ, विपरीत उदाहरण तो इस के कई मिलते हैं । सेठजी! आप बड़े हैं, इसीलिए चाहे जिसको जैसा चाहे, कदापि नहीं कह सकत । और, हम छोटे हैं, इसीलिए ऐसी-वैसी बातें हर एक की सुनते रहें, कदापि हो नहीं सकता!"नट की बातें सुन कर सेठ का सिर सहम गया। उन की आँखें नीची हो गई । नट राज के सामने अपनी भूल [ १७४ ]

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