Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 190
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तार P समय में पढ़-लिख कर वह प्रयोग बन गया । योवन की सन्धि में, एक सुन्दर और शील-सम्पन्न कन्या के साथ कुमार का विवाह कर दिया गया। यूँ, कुछ काल आमोद-प्रमोद में बीत गया । कुमार के जीवन रूपी नाटक का एक क यह समान हो गया । · “ fiate's lines are ineff-ernbe. " अर्थात् कर्म की रेख में मेख मारना प्रायः असम्भव है । "What is futed, cannot be awaited. ' अर्थात् भाग्य में जो लिखा होता है, वह हो कर के ही रहता है । इस को किसी ने श्रीर भी ये खुलासा किया है-" भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्यान न पौरुप | " अर्थात् भाग्य-चल के श्रागे विद्या और पौरुप, बलहीन है। नगर में एक दिन एक नट श्राया। जगह-जगह लोग उस की करामातों को देख कर, दाँतों तले श्रृंगुली लगा रहते । श्रपनी प्रसिद्ध नट विद्यां तो उस के साथ थी ही । पर इस से भी बढ़ कर एक करामात उस के पास और थी। वह श्री, उस की यौवन सम्पन्न पुत्री । कोमलता, सौन्दर्य और याचन की त्रिवेणी, उस के शरीर प्रदेश के कोने-कोने को स्वर्ग-धाम चनाये बैठी थी । यही कारण था, कि जहाँ भी कहीं एक बार वह चला जाता, जनता की अपार भीड़, उस की उस त्रिवेणी के दर्शन के लिए, उमड़ पड़ती। एक दिन कुमार ने भी कहीं उसे देख लिया। तभी से उस का मन उस पर लट्टू हो गया। परिणाम भी वही हुआ, जो होना चाहिए था । तभी तो किसी ने क्या ही सुन्दर कह दिया है, कि SC इक भीजै चहले परैः चूड़े-बड़े हज़ार । कतै न श्रौगुन जग करतं; नय-वय चढ़ती वार ॥ 29 T9 7

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