Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 175
________________ राजर्षि - प्रसन्नचन्द्र प्रतिध्वनि के द्वारा, ध्यानस्थ मुनि के कानों में उन का प्रवेशं हु । चस, मुनि का मन, धर्म-ध्यान से सर्वथा फ़िसल पड़ा। श्रौर, फिसलते-फिसलते, श्रार्त्त तथा रौद्र ध्यान की प्रचण्ड वेगवती सरिताओं की वादों में वह था फँसा । मुनि-पद की मर्यादा ने उस क्षण उन का साथ छोड़ दिया । अपने वन वल. शत्रु को किसी भी प्रकार संहार करने का भाव, उन के हृदय में जागृत हुआ । इसी भाव ही भाव में, अपने सेनापति और शत्रु-दल संहारिणी, वीर योधाओं की एक सेना की रचना तक उन्हों ने कर ली । उन्हें रणाङ्गण में जा कर शत्रुओं का शमन करने का हुक्म तक दे दिया गया। और रणभूमि में जाने. के लिए आप भी जिरह वख़्तर पहनने को उठ खड़े हुए। इस भाव-भय-राज्य में विचरण करते हुए, मुनि के दोनों हाथ, जिरह - तर पहनाने के बहाने, उन के सिर की ओर पहुँचे । 33 उसी क्षण, राजा श्रेणिक, भगवान् की सेवा में उपस्थित थे। उन्हों ने वीर प्रभु से पूछा, "भगवन् ! वन-स्थली में ध्यानस्थ खड़े हुए प्रसन्नचन्द्र मुनि यदि इस समय आयुष्य पूर्ण करें, तो वे कहाँ जा कर उत्पन्न हो सकते हैं ? इस पर, "सातवें नर्क में, " भगवान् ने कहा । भगवान् के उस उत्तर से, श्रेणिक के सिर में कुछ चक्कर- सा आ गया; और आंखों के आगे अन्धकार छा गया। यही नहीं, वैराग्य के त्याग पूरी जीवन के प्रति, गहरी घृणा भी उन के हृदय में हो आई । फिर भी, भगवान् के वाक्यों में उन की श्रद्धा थी, भक्ति थी, और था, अटल विश्वास । यही कारण था, कि अपनी शंका-समाधान के उचित समय की प्रतीक्षा करते हुए, कुछेक क्षणों के लिए, वे ठिठुक-से रह गये । [ १५६ ]

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