Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 171
________________ खन्धक - मुनि नहीं पाता । जगत् जिसे सब से बुरी बुराई समझता है वही वास्तव में सबसे अधिक भलाई करने वाली होती है । इस श्राकस्मिक विपदा ही ने मुनि को असमय ही में मोक्ष धाम में पहुँचा दिया | 1 मुन के पाँचसा सुभट-साथी, यह समझ कर, कि यह तो खास कर के मुनि के बहिन हिनोई ही की वस्ती है, वहाँ हमारी इतनी कोई श्रावश्यकता ही नहीं है, मुनि के साथ, उस समय न रहे । परन्तु इस दुर्घटना का सन्देश सुनते ही, उन की सारी निर्भयता और निशंकता, शशक-शृंग के समान उड़ गई । वे शीघ्र ही कुन्ती नगर में आये । और, राजा के पास, फ़ी बन, वे पहुँचे । राजा को मुनि का सारा परिचय उन्हों ने दिया। इस से राजा का कलेजा कांप उठा। उन्होंने अपनी करणी पर, घोर पश्चात्ताप प्रकट किया। मुनि की वहिन के कानों भी यह बात पड़ी। बन्धु-निधन पर वह भी अपने वलभर रोई विरी । " बहिन बहिनोई का साले के साथ यह हृदय विदारक अत्याचार सुन, मेरे माता-पिता क्या कहेंगे; मुझे किस तरह चे विकारेंगे; भाई ने यहां आने पर, हम किसी को अपना परिचय तक नहीं दिया; " यह सोच सोच कर, वह बेहोश सी हो गई । यह बात, विजली की तरह, बात की बात में शहर में फैल गई। चारों श्रोर, राजा के श्रविचार पूर्ण कुत्सित कर्म की निंदा होने लगी । मुनि-वध से नगर में हाहाकार मच गया । ऐसे ही श्रवसर पर, धर्म-धोप मुनि का शुभागमन वहाँ हुआ। राजा-रानी दोनों भी समय पाकर मुनि के वन्दनार्थ गये । राजाने, ग्रन्थ से [ १५५ ]

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