Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 159
________________ जिनरित्र-जिन-पाल धात वह करेगी । पर उस के कहने पर जरा भी कान तुमने कभी न देना। इस के विपरति. उस के वचनों में. तुम में स काई, जरा भी माहित हुश्रा, कि उसी क्षण, अपनी पाठ से. में उसे उतार फेंक दूंगा । परन्तु मेरे बचनों पर दृढ़ यदि वने रहे, तो सहज ही में पार भी में लगा देगा।" कह, उस यक्ष ने घोड़े का प धारण कर लिया। दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर चढ़ाया । तब चम्पा नगरी की धार वह चला ' रतादेवी ने भी इस बात को किसी तरह जान लिया ।वह भीचटचंडिका के प्रचंडवप में यहां या पहुँची। और, मानो, जैसे वह उनकी सचमुच में प्रेयसी ही कोई हो. उसी रूप में, उन के वियोग में, भाँति भाँनि के श्रालाप-विलाप, उन्हें सुना-सुना कर, वह करने लगी। उस के इन कपट-पूर्ण, किन्तु करुणा और प्रेम-संग शब्दों का जिन-पाल पर तो जरा भी असर न पड़ा । परन्तु जिन-रक्ष उस की बाग-जाल में, जर्जरित होकर, फंस गया। उसके प्रेम में वह पागल हो गया। पूर्व में, उसके साथ किये गये कीदा विनोद और प्रेमालाप का रह-रह कर स्मरण उस हो पाया। अपने उद्धार की पर्वाह न कर, उसन उसकी और अन्त में दग्य ही लिया । यक्ष ने यो पतित हाते उसे दंग्य, अपनी पूर्व प्रतिमानुसार, पीठ पर से उतार उसे फका । चंडिका ना यह चाह ही रही थी। पाते ही. जिन रक्ष का काम उसने तमाम कर दिया। फिर जिन-पालको भी लाखलाख प्रयत्नों से यह ललचाने लगी। परन्तु प्रतिज्ञा-चीर जिनपाल को अपने प्राणों की पड़ी थी। उस ने उस की रीझ और ग्वीम की तनिक भी पर्वाह न की। यह उस की अग्नि-परीता श्री । पर वह उस में सोलह श्राना सफल हुआ। देवी,थक कर [१४३]

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