Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 158
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे दोनों भाइयों के होश गगन में गुम हो गये । " बचने का कोई उपाय भी, है ? भाई !" वे लड़खड़ाती हुई जबान में उस से योले । “हाँ, हाँ ! है क्यों नहीं ? मुझ से पहले के, इसी शूनी पर लटकने वाले भाई ने, वह उपाय मुझे सुझाया था। इस चंडिका के प्रेम-पास में फंस कर, वह उपाय मेरे लिप.ता चेकार हुआ । परन्तु मरते-मरते, तुम्हें तो मैं उसे बता ही दूंगा। उसे काम में लाना, न लाना, फिर तुम्हारा काम है। पूर्व के वारा में 'शेलक' एक यक्ष रहता है। अष्टमी चतुर्दशी, श्रमावस्या और पूर्णिमा को प्रकट हो कर, 'किसे ताई? फिले पार उतारूँ ? ' ऐसे उद्गार वह घोषित करता है। उस समय, उपस्थित रह कर, 'हमें दुख से छुड़ाया ! हमें पार उतारो !' आदि प्रार्थना तुम उस से करो। चस, तुम्हारे बचने का यही एक राज-मार्ग है।" उत्तर में उसने कहा। दोनों भाइयों ने उस का बड़ा उपकार माना। और, दौड़े. दौड़े पूर्व के वीचे में चे पाये। नियत स्थान पर पहुँचे। उस दिन भी उस के प्रकट होने की वारी थी। यक्ष समय पर प्रकट हुअा। आर, जैसा उस आदमी ने कहाथा,घोपित करने लगा। तव उन दोनों भाइयों ने, कष्ट से छुड़ा कर, समुद्र से पार उतार ने की प्रार्थना, उस से की। यक्ष चोला, “ अच्छा ! उपाय तो मैं तुम्हें बताये देता हूँ। पर क.म मैं उसे उतारना, तुम्हारा काम है। जिस क्षण, मैं तुम्हें पार उतारूँगा, वह चंडिका, सोलह शंगार और वारह आभूपणों से सज-धज बड़े ही मनोरम रूप को धारण कर, तुम्हारे सम्मुख आखड़ी होगी। वीसियों प्रकार के प्रलोभन और आश्वासन वह तुम्हे देने की चेष्टा करेगी । लाख लल्लोपत्तो कर-कर के, तुम्हें लौटाने की [१४२ ]

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