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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
समानुपात के द्वारा, उन की सम्पत्ति का हिसाव लगाया जा सकता है वीर प्रभु के उपदेशों का क़गरा असर उन पर पड़ा। अपने बड़े पुत्र को सारा अधिकार सांप, गृहस्थ-धर्म को अंगीकार उन्हों ने कर लिया । और, प्राण-प्रण से उस के पालन का प्रयत्न वे करने लगे । श्रव धर्म उन का था और वे धर्म के । उन के रोम-रोम से धर्म की ध्वनि निकलती थी । चंड़-वंड़ देवताओं तक को, उन्हें अपने धर्म से डिगा ने को हिम्मत नहीं होती थी ।
संसार अनादि है । श्रनादिकाल से सज्जनों को स्वर्णपरीक्षा यहाँ होती आई है । परन्तु होती वह उन को कुन्दन चनाने के लिए है । कामदेवजी को भी इस तंग घाटी में से हो कर निकलना पड़ा | चतुर्दशी का दिन था । पोपधशाला में, पौध-व्रत को धारण कर, कामदेवजी ध्यान में मग्न हो रहे थे। आधी रात का समय हुआ । एक मिथ्यात्वी देव ने, भयंकर पिशाच का रूप धारण कर, कामदेवजी की अग्नि परीक्षा, उस समय, करना चाही । भाल पर उस के सलवट पड़ी थीं। दाँत को कड़कड़ाते हुए, लपलपाती दुधारी तलवार को हाथ मैं ले, वह उन के सम्मुख आ खड़ा हुआ । और, चोला, "कामदेव ! मोक्ष के लिए धर्म की आराधना तेरी बड़ी ही सराहनीय है । प्राण रहते इस का पालन करना, तेरा कर्तव्य भी है । परन्तु आज यदि तू अपने पथ से न डिगा, तो इस लपलपाती हुई विकराल तलवार के घाट तुझे मैं उतार दूँगा । परन्तु धर्म-प्राण कामदेवजी के लिए, यह धमकी कुछ भी न थी । मचले हुए चालक की माँग से उस का मोल ज़रा भी अधिक, उन के लिए, न था । वे अपने ध्यान में अडिग थे ।
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