Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 144
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे ही अवसर था। आवाज़ के सहारे, संध लगाता-लगाता, प्रभवा ऊपर चढ़ा। कुमार को अपनी पाठी नव-विवाहित श्रद्धांगिनियों के साथ, वाद-विवाद करते, उसने वहाँ पाया । श्राठों श्रद्धागिनियाँ कुमार को कह रही थीं, "जब दीक्षा लेना ही श्राप का ध्येय था, तव विवाह की केवल मानता मात्र पूरी करने के एक दिन ही के लिए, हमारे सारे जन्म और जीवन को आपने वर्वाद ही कसे किया ! हमारी सारी उठती हुई उमंगों को, विवाह के पहले ही दिन, आपने बड़ी ही बुरी तरह से कुचल कर, सदा के लिए नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। क्या, हम्ही अबलायों के साथ इस प्रकार के अत्याचार के करने का मौका श्राप को मिला है ? " " मैंने पहले ही यह बात तुम्हें कहला दी थी। मेरा इस में रत्ती भर भी दोप नहीं। अब तो ऐसा विवाह अपने को करना चाहिए, जिस से भाँति-भाँति के जन्म धारण करने और मौत का मुँह ही कभी अपने को न देखना पड़े ," कुमार ने उदासीनता से कहा । ये सब बातें प्रभवा ने कान लगा कर सुनीं। __ प्रभाव की निद्रावस्थापिनी विद्या की करामात, कुमार के परिवार पर कुछ न चली । इस से भी वह चकराया। फिर एकाएक वह कुमार के आगे जा खड़ा हुआ । उसे देखते ही सारा स्त्री-समाज मुँह वाँधे एक और जा खड़ा हो गया।प्रभवा ने कुमार से कहा,-'एक ओर तो हम हैं, जो पर धन और पर-दारा की फिराक में, इधर-उधर डाका डालते फिरते है। और, जिन को पाने के लिए हम अपने प्राणों तक को, सदासर्वदा हथेली में लिये रहते हैं। दूसरी ओर एक श्राप है, जो [१२८ ]

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