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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
में से एक का नाम 'धर्मरुचि' था। चे बड़े तपोधनी मुनि थे। अपने तप ही के वल, उन्हें कई सिद्धियाँ सिद्ध हो गई थी। उन दिनों, वे मास-खमण की तपस्या करते हुए, श्रात्म-ध्यान ही में, प्रति-दिन रत रहते थे।
उसी चम्पा नगरी में, सोम, सोमदत्त और सोम-भूति नामक तीन भाइयों का एक ब्राह्मण परिवार था। उन की पत्तियों क नाम क्रमशः नाग-श्री, भूत-श्री, और यक्ष-श्री था। तीनों भाई आपस में यूँ मिले हुए थे,जैसे पानी में दूध। पूर्व-निश्चय के अनुसार, तीनों का भोजन, वारी-बारी से एक ही जगह बनता। और प्रेम-पूर्वक सारा परिवार साथ बैठ कर, भोजन करता। एक दिन जव सोम के घर भोजन वन ने की बारी श्राई, उस की पत्नी ने तरह-तरह के कई पक्कान और तूंवे की साग बनाई । चखने पर, साग, हलाहल विप के समान कडुवी निकली। उसे हटा कर दूसरी साग तैयार कर ली गई। तीनों भाइयों का परिवार आनन्द-पूर्वक भोजन कर के उठा ही था, कि इतने ही में, धर्म-धोष मुनि के तपोधनी शिष्य, धर्म-रुचि श्रणगार, अपने एक मास की तपस्या की पूर्ति का दिन होने से, गोचरी के लिए, उसी घर में आ निकले। सोपा की स्त्री, नाग-श्री ने उस कटु साग को वाहर फेंकने के अपने कष्ट को हलका करने का यह शुभ सुयोगपाकर,वह साग उन्हीं कोचहरा दी। उस साग को लेकर मुनि,अपने गुरु के निकट पहुंचे। उन्हों ने साग को देखा और चखा। चखते ही उन्हों ने उसे प्राणान्तक कटुसमझ, उसे किसी ऐसे निर्वद्य स्थान में डाल आने की आज्ञा, धर्म-रुचि को दी,जहाँ पर जीवों की विराधना न हो।तपस्वी मुनि ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य की । ढूंढते-ढूँढ़ते,वे एक निर्वद्य
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