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जैन जगत् के उज्ज्वल नारे के भाई का हाल इन्हें ज्ञात हुया । उन्हें प्रति बोध देने की इन्हें सूझी। वे उसकी पोर चले । उधर, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को भी जाति-स्मरण ज्ञान हो पाया। वे भी अपने पूर्वजन्म के भाई से मिलने के लिए छटपटा रहे थे । इच्छानुसार, दोनों का अचानक संयोग हुश्रा । प्रेम-पूर्वक दोनों मिले-भटें । ब्रह्मदत्त वोले, "भाई ! फंको ये झोली झण्डे ! चलो राजमहलों में । और, संसार के भोगों का अानन्द-पूर्वक उपभोग करो। यह सुन कर मुनि बोले, "भाई ! एक बार तो अपन दोनों एक ही घर में दास-पुत्र थे । दूसरी बार, कालिंजर पर्वत पर, मृग रूप में, साथ रहे । तीसरी बार, गंगा नदी के तट पर हंस बने । चौथी बार, श्वपच के घर अपना जन्म हुआ। पाँचवी चार, स्वर्ग में भी अपन साथ ही साथ रहे। परन्तु इस छठी वार में, तुम्हारे ही निदान ने, अपने को अलग-अलग कर दिया। अतः छोड़ो इस राज वैभव को ! और, श्रात्म-कल्याण के मार्ग का अनुसरण करो।" मुनि की ये चाते सम्राट को नागवार गुज़रीं । मुनि ने तब वहाँ से विहार कर दिया। और, कठिन तप के वल, अपने सम्पूर्ण घनघाती कर्मों का एकान्त अन्त कर, सदा के लिए, वे मोक्ष-धाम में जा बिराजे । इस के विपरीत, ब्रह्मदत्त का अन्त, भोगों को भोगने में हुा । वे मर कर सातवें नर्क में गये। निष्काम और सकाम क का पेखा ही फल होता है।
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