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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
से, किसी भी कदर कम न था। लक्ष्मी तो, मानो उस के घर, दासी ही वन कर, अपना वोरी-चंडल डाले,श्रा रही थी। घर के फर्श में, ईंट और रोड़ों की जगह पन्ने लगे हुए थे। नवजात शिशु का नाम 'शालिभद्र' रक्खा गया । यौवन में बत्तीस कन्याओं के साथ उन का विवाह हुश्रा । गोभद्र सेठ श्रव स्वर्ग को सिधार गये थे। वहाँ से, वे स्वयं भी, अपने प्राण-प्रिय पुत्र की रही-सही इच्छाओं की पूर्ति में, जुट पड़े । अब तो देवता लोग भी उन के भाग्य को सराहते थे। दुख उन के लिए अव ढूढ़े भी कहीं नाम को न था। यूँ, दिन और महीने, वर्ष और युग, आनन्द-पूर्वक उन के कटने लगे। ___ एक दिन, रतजटित कम्बलों के व्यापारी राजगृह में
आये । श्रेणिक राजा के राज-महलों में वे पहुँचे । राजा ने, रा. नियों के पास कुछ कम्बल, दिखाने के मिस भेजे । रानियों ने उन्हें पसन्द तो देखते ही कर लिये परन्तु खरीदना, राजा की मर्जी पर छोड़ दिया। एक-एक कम्बल की कीमत सवा लाख असर्फियों की थी। कीमत सुन कर, राजा के कान खड़े हो गये । व्यापारियों को यहाँ से बड़ी प्राशा थी। राजा के चेहरे को देख कर, वेचारों के चेहरों का नूर उतर पड़ा। उलटे पैरों वे वहाँ से लौट कर, नगर के बाहर एक धर्मशाला में, रात काटने के लिए, ठहर गये । व्यापारी कितना ही बड़े से बड़ा चाहे कोई हो; परन्तु खरीद और विक्री यदि उनके पास नहीं, तो उन का सारा वड़प्पन, ढोल के ढम ढम के समान खाली है; नक्कारे के नाद के समान ऊँचा तो है; पर है अन्दर से घुन लगे हुए गेहूँ के समान थोथा और पोला!वेचारेमन मारकर, सिर लटकाये हुए जा बैठे थे। करोड़ों की सम्पत्ति पास में
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