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नैम जगत के उज्ज्वल तार
लीन हो गया। ___ उस के कुछ ही काल के पश्चात् वे ही स्थविर मुनि पुनः वहाँ पधारे । इस वार के उदेश की श्रवण कर, पुण्डरीक ने तो गृहस्थ-धर्म को धारण किया, और,कुण्डरीक न मुनि के निकट दीक्षा धारण की। अपने अनवरत अध्यवसाय के द्वारा,कुछ ही काल में, कुण्डरीक मुनि ने पूरे-पूरेग्यारह अंगों का गंभीर शान प्राप्त कर लिया। तपश्चर्या तो उनकी कठोर ही थी । पारण के दिन, जैसा भी रूखा-सृखा,समय पर उन्हें मिल जाता, उसी को ग्रहण कर अपने संयम का निर्वाह निश्चल रूप स व करते रहे । परन्तु परिणाम इसका कुछ उलटा ही हुश्रा । उस सखें सूखे भोजन से, दाह ज्वर की व्याधि ने उन्हें आ जकड़ा। यह देख, स्थविर मुनि ने उन्हें अपने साथ लिया। और, फिर से वे उसी राजधानी की नगरी में आये । ___ महाराज पुण्डरीक ने ज्योही मुनि के आगमन की सूचना पाई, दर्शनार्थ, मुनि की शरण में वै पहुँचे । अपने भाई मनि को बीमारी को भयंकर देख, स्थावर मुनि से नगर में पदार्पण करने की उन्होंने प्रार्थना की, जहाँ सुविधा-पूर्वक अस्वस्थ मुनि की उचित चिकित्सा समय पर हो सके । स्थविर मुनि न केला ही किया। महाराज ने कुण्डरीकं मुनि के उचित औषधोर पचार का प्रवन्ध करवा दिया। कुछेक दिनों के पश्चात्, स्थ विर मुनि एक दो साधुओं को, कुण्डरीक मुनि के निकट छोड़, शष को अपने साथ ले, वहाँ से अन्यत्र विचरण कर गये। राजाश्रय में, थोड़े ही दिन चीतन पर, कुण्डरीक मुनि पूर्ण वस्थ हो गये । एक रोग ने मुनि का पीछा छोड़ दिया। परन्तु दूसरे ने, उसके छोड़ते ही, उनका कण्ठ धर दवाया । राज
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