Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 4
________________ २५. जैनहितैषी। .. [भाग १५ आविद्धावपि यत्करणौ भावको आपने नीचे लिखे पद्यों में प्रगट विद्वौ ज्ञानशलाकया ॥२२॥ किया हैस्वयं वीरसेन प्राचार्यने. धवल यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका सिद्धान्तकी* प्रशस्तिमें 'धवला टीकाके स्वयंवरितुकामेव श्रोतिमालामयूपुजत् ।।२३ अन्तमें जिन विशेषणोंके साथ अपना येनानुचरितं बाल्याब्रह्मव्रतमखंडितम् । परिचय दिया है, उनसे भी यही मालूम स्वयंवरविधानेन चित्रमूढा सरस्वती ॥२४॥ होता है कि श्राप आर्यनंदिके शिष्य, योनातिसुन्दर।कारो न चातिचतुरो मुनिः । चन्द्रसेनके प्रशिष्य और पंवस्तूपान्वय. तथाप्यनन्यशरणायं सरस्वत्युपाचरत् ।।२५ को प्रकाशित करनेवाले सूर्य थे। यथा आप स्वभावसे ही बुद्धिमान् , शांत अजज्जणांदिसिस्सेणु. और विनयी थे, और इन ( बुद्धि, शांति, जवकम्मस्स चंदसेणस्स । विनय ) गुणों के द्वारा आपने अनेक तह णत्तुवेण पंचथूहण्णय । प्राचार्योका अाराधन किया था। अर्थात, भाणुणा मुणिणा ॥ ४ ॥ इन गुणों के कारण कितने ही प्राचार्य उस समय आपपर प्रसन्न थे । आप . श्री जिनसेन आविद्धकर्ण थे अर्थात्, शरीरसे यद्यपि पतले दुबले थे, तो भी उनके दोनों कान बिंधे हुए थे, ऐसा तपोगणके अनुष्ठानमें कमी नहीं करते थे। ऊपर उधृत किये हुए पद्य नं० २० के शरीरले कृश होनेपर भी आप गुणोंमें उत्तरार्धसे पाया जाता है। साथ ही यह कृश गहीं थे। आपने कपिल सिद्धान्तोंभी मालूम होता है कि पाविद्धकर्ण होनेपर सांख्यतत्वों-को ग्रहण नहीं किया और न , भी आपके कान पुनः ज्ञानशलाकासे विद्ध उनपर भले प्रकार विचार ही किया । तो किये गये थे, जिसका भाव यही जान' भी आर अध्यात्म विद्या-समुद्र के उत्कृष्ट पड़ता है कि, मुनि-दीक्षाके बाद अथवा पारको पहुँच गये थे। आपका समय, पहले आपको गुरुका खास उपदेश मिला निरंतर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ था और उससे आपको बहुत कुछ प्रबोध की प्राप्ति हुई थी । आप बाल-ब्रह्मचारी करता था, इसीसे तत्वदर्शीजन आपको ज्ञमयपिंड (?) कहते थे। इन सब बातोंके थे।बाल्यावस्थासे ही आपने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया था। अतिसुन्दरा. द्योतक पद्य, प्रशस्तिमें, इस प्रकार हैंकार और अति चतुर न होनेपर भी सर- धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिकागुणाः । स्वती आपपर मुग्ध थी और उसने सूरीनाराधयंतिम्म गुणैराराध्यते न कः ।।२६।। अनन्य-शरण होकर उस समय आपका यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोभूत तपोगुणैः। ही आश्रय लिया था। साथ ही, आसन्न- नकुशत्वं हि शारीरंगुणरेव कृशः कृशः॥२७॥ भव्य होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयं- यो नाग्रहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । पराकी तरह समुत्सुक होकर आपके तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः परं पारमशिश्रयत् २८ कंठमें श्रुतमाला डाली थी। इस अलंकृत ज्ञानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरं । - यद प्रशस्ति भी आराके जैनसिद्धान्त भवन में ततोन (ज्ञ?)मयपिण्डं-यमाहुस्तत्वदार्शन:२९ मोजूद है। आपने जयधवला टीकाके उत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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