Book Title: Jain Dharmamrut
Author(s): Siddhasen Jain Gpyaliya
Publisher: Siddhasen Jain Gpyaliya

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ -ष्ट विचागन (प्रित्र पत्तु के विवाग होने पर प्राप्ति पर विचार करना ) २-अनिष्ट संचागज ( अप्रिय वस्तु का संचाग हान पर दूर करने का चितवन) :-वेदना ( रोग जनित पीडा का चितवन ) ४-निदान ( आगानी विषय भोगों की इच्छा ) ४--कोद्रध्यान-- ६-हिसानद ( हिंसा करके आनंद मानना ) :-अमृतानंद ( झट बोलने में आनद नानना) -स्तेयानंद (चारी ने आनद मानना) -परिमहानंद (विपच सामग्री की रक्षा करने में आनंद नानना ) ४-धमध्यान-- -आज्ञाविच्च (आगन की आज्ञानुसार पदायों के स्वरुप सावित्रारना) -अपाचविचच ( सनान के प्रचार का चिंतन करना ) . :--विपाकविचय ( कर्न फल का चितवन करना ) -संस्थानविश्च (लेक के सरुप चिन्तवन) ४--तंन्धान रिचय १-पिंटस्थ २दन्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78