Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 04 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 6
________________ . . यहि को पार लगानेवाले, पिता मेरे है जग उजियाले । मोह रुप कठिन अंधियारा, भेद ताहि जिन किया उजारा ॥ . चिर कालहिं सत्र संचित कर्मा, वास करत मम पितु कर धर्मा । करुणामृतसागर पितु मेरे, नास करे तिन दुख भव केरे ॥ इन समान नहीं कोई दुख नासा, काटा पूर्व कर्म कर पासा । एसे खामी दिये बिहाई, मन प्रर्वती माया मह धाई ॥ चकृवती नृपते तर्भा, प्रभु चरणन चित लाय।। धर्म चक्री गुरु राजसे, बोला शीष नवाय॥ कृषक नष्ट हो त्रण उपजावा, स्वार्थ नीति तिम ज्ञान न भावा। . विषय वासना बहुत भुगाई, नाट्य कर्म कर जीव भ्रमाई ॥ यह साम्राज्य बहुत दुख कारा, धर्म कार्य पाया मय सारा । तुम सम पिता मिले शुभ कर्मा, फिरभी जीव बहुत विधि भर्मा। तब मोसम हे कवन अभागा, जो पारस को फेंकन लागा। नाथ बहुत में राज्य संभाला, अब संयम पालहुं प्रतिपाला॥ जिमि सोपा मोहिं राज्य गुसाई, तिमि संयम दीजेगुरु राई । इमि कह तुरत राज्य कर भारा, राजकुंवर कर सोंपा सारा ॥ पनि दिक्षा लीनी सब भाइ, सारथी सुयसा भी मन लाई। स्वामि संग तिन दिक्षा लीनी, चतुर सेवक स्वामी गति चीनी ।। अल्प समय शास्त्र पढ़ डाले, पूर्व कर्म के गुण पर चाले। तिथंकर पद सेवा कर ही, इसमें मन तृपती नहीं रहइ । इससे भी ज्यादा वह चाहे, मासखमण तप बहुत निबाहे। तिथंकर वाणी मन माना, जिण वाणी अमृत कर पाना। वज्रसेन तिर्थकर, उतम करते ध्यान । त्यागी नश्वर देहको, किया आत्म कल्याण ॥ ( अपूर्ण.)Page Navigation
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