Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 04
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 15
________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઓર મૂર્તિપૂજા. शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा. लेखक:-पन्यास श्रीप्रमोदविजयजी गणिवर्य. (पन्नालालजी) (गतां १४ ४४ थी मनुसंधान.) श्रीमान् डा. त्रिभुवनदास लहेरचंद ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास द्वितीय भाग पृष्ट १३२ पर जो दो सौ सिक्कों के चित्र दिये हैं उन सिक्कों में कई ऐसे भी हैं जिनमें एक तरफ हाथी और दूसरी तरफ चैत्य का दृश्य दीख पड़ता है। ये सिके मौर्य काल के होने विद्वानों ने साबित किये हैं जो जैनियों के उत्कृष्ट अभ्युदय का समय था । इन सिक्कों का उल्लेख करते हुए कितने ही पुरातत्वज्ञों ने तो यहां तक बतलाया है कि जैनधर्मको कितनेक राजाओं ने अपनाया था और अपने सिक्कों पर जैन चैत्यों के चिह्नभी अंकित कर दिये थे इससे जैनियों की व्यापकता का पूर्ण पता लग जाता है तथा जैनी लोग प्राचीन समय से ही मूर्ति पूजते थे इसी लिये सिक्कों पर भी प्राचीन जैन संस्कृति का ही अनुकरण ज्ञात होता है । मूर्तिपूजा के संबंध में पाश्चात्य विद्वानों का कथन है कि-ईस्वी सन् के पांच हजार वर्ष पूर्व भी जैनधर्म में मूर्तिपूजा विद्यमान थी। श्रीमान् केशवलाल हर्षदराय ध्रुवने जो कि भारतीय पुरातत्वों में से एक और विख्यात हैं तथा षड्दर्शन के भी अद्वितीय विद्वान् हैं कलिंग देश की जिन मूर्ति के शिलालेख का स्पष्टी करण करते हुए व्यक्त किया है कि "आज से २३०० और २५०० वर्ष भी जैनों में मूर्ति पूजा आम तोरथी प्रचलित थी ऐसा इस शिलालेख से स्पष्ट झलकता है और यह शिलालेख भी सर्व शिलालेखोंमें प्राचीनतम है।" बाफ धुवीने यह वक्तव्य बहुत प्रयत्न और अन्वेषण के पश्चात् व्यक्त किया है । आप षड्दर्शन के तो अनन्य एवं प्रकाण्ड पंडित है । आपके कथन से भी मूर्तिपूजा प्राचीन ही है । शोधखोज के अजोड अभ्यासक प्रकाण्ड विद्वान् श्री सखलदास वंद्योपाध्याय बनर्जी ने अपने सत्यप्रकाशमें यह निश्चय प्रकट किया है कि आज से २५०० वर्ष पूर्व जैनधर्म में मूर्तिपूजा होती थी । बनर्जी का यह कथन सर्वथा प्रमाण सिद्ध और मूर्तिपूजा की प्राचीनता का सूचक है। यूरोप का महान् क्रांतिकार डॉ. सोक्रेटिज (शुकरात) ने कहा है कि मूर्तिपूजा छुडाने से लोगों की अज्ञानता और अधार्मिकता घटेगी नहीं पर उल्टी बढती जायगी । या तो मिश्र वासियों की भांति मूर्तिपूजा छोड मगर व बिलाडी की पूजा करेंगे या नास्तिक बन कर कुछ भी नहीं करेंगो । उक्त क्रांतिकारी की मूर्तिपूजा के प्रति कितनी अटूत श्रद्धा और भक्ति झलक रही है । वास्तव में मूर्तिपूजाका निषेध करना अनेक भद्रिक और भाबुक जीवों को अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेलना है।

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