Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 04
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 32
________________ જૈનધર્મ વિકાસ. में विद्या ले लेनी चाहिए, फिर क्या देर थी समय पर गुरु पात्र संभाल जंगल की ओर खाना हुए यह देख मूर्खराज भी दबे पांवो पीछे २ चलने लगे जब वे इष्ट स्थान पर पहुंच स्थंडिलार्थ बैठने ही वाले थे कि मुर्खराजने महाराज जरा ठहरिये२ का बुलंद आवाज किया, गुरुराज को शंका जोरों पर लगी हुई थी वे बैठने लगे उसी स्थान पर एक भैस का सींग गडा हुवा था इतने में गुदा स्थान पर सींग का आघात हुआ, बेचमक कर उठ खडे हुवे इतने ही में मुर्खराज भी सन्निकट आ पहुंचे और गुरुराज से हाथ जोडकर कहने लगे महाराज यहां तो पूरा२ एकांत है, अब वह आप कहते थे सो वह विद्या बतलाय दो, गुरु को गुदां पर लगी मार की झन झनाहट तो हो रही थो, इधर शंका भी तिव थी, और इसमें अग्नि में व्रत की आहूतो की तरह मूर्ख शिष्य की क्रिया को देख, हास्य एवं क्रोध से भरे हुवे गुरुराजने कहा "भैंस का सिंग लफोदर का नाम" यद्यपि यह उपालंब था किंतु मूर्खराज के मन ने तो इसे ही महामंत्र मान लिया, और मिल गई२ की आवाजों को लगाता हुवा प्रसन्न चित्त शीघ्र गति से आश्रम में आया और माला ले जपने लगा, ठीक ही कहा है कि "पूज्यस्य-उपालंबोऽपि उपकारकः स्यात्" और भी कहा है कि ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदः । मंत्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा ॥ खाते पीते सोते बैठते या काम करते एक धुन के साथ अहो रात्र जाप चालू था, किंतु था गुप्त रीति से जिस कारण किसी को भी इसका पता नही लगा। ( जप से सिद्धि होत है, मन पावे विश्राम। भद्रानन्द कहत है, जपो सदा प्रभु नाम)॥१॥ यो जाप करते हुवे उसे छ मास व्यतीत हुवे तब विचरण करते हुवे स्वर्गीय देवता वहां आये और उसको गुरु वाक्यमे श्रद्धा देख कर प्रसन्न हो वरदान मांगने के लिये कहने लगे किन्तु मूर्खराजने तो उन्हें कोई उत्तर ही नही दिया पुनः पुनः कहने पर भी उसे नहीं बोलता देख कर उसके जप कार्य में विघ्न करना अनुचित समझ उसे अनेक आंतरिक सिद्धियां प्रदान कर अपने स्थान को चले गये तदपि इसका जाप तो एक सा चालू ही था कुछ दिनों के बाद विद्वान शिष्य के मन में देशाटन की इच्छा हुई, तब उसने गुरु से आज्ञा मांगते हुवे कहा कि महाराज मेरी इच्छा दिगविजयार्थ जाने की हो रही है, जिससे कृपया आप मुझे आशा प्रदान कीजिये, और काम काज के लिये मूर्खराज को भी मेरे साथ भेजने की कृपा करें, गुरुराज ने आज्ञा दे दी, फिर क्या देर थी क्षणो में सारी तैयारी कर ली एवं शुभ मुहुर्त में प्रयाण भी कर दिया चलते२ सन्ध्या होते देख एक गाम में मुकाम कर दिया, गांव के बाहर एक टूटा फूटा देवस्थान था वही पर हमारे प्रवासी ठहरे, और सारी व्यवस्था करने लगा. (अपूर्ण.)

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