Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 07
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 10
________________ ૨૧૨ જૈનધર્મ વિકાસ. है इतना ही नहीं किंतु उस समय मुर्तियों और मंदिरों के लिये अपशब्द बोलने वाले को कठोर अनुशासन एवं दंडादि देने का भी नियम था ऐसा स्पष्ट विधान मिलता है। भारतीय आर्य संस्कृति और धर्म संस्कृति के टिकाव में मूर्ति पूजा का बड़ा भारी हिस्सा था और है। गिरनार तीर्थ, सम्मेतशिखर, आबू, तारंगा, राणकपुर, कुंभारिया पालीताणा, शत्रुजय और ओसियां के प्राचीन तीर्थ मंदिर अच्चावधि भी हमारी जैन संस्कृति की पराकाष्ठा के परिचायक हैं उनका भी मस्तक एक बार यहां अवश्य झुक जाता है। हां, पक्षपात के व्यामोह के कारण यदि कोई सिर न नमावे तो बात अलग है यह सहृदय और भावुक कलि की अंतरात्मा ऐसा करने की अनुमति कदापि नहीं दे सकती है। इन मंदिरों के दर्शनार्थ और जैन संस्कृति के संबंध में परिचय प्राप्त करने के अभिप्राय से अनेक सूदूरदेशवर्ती अंग्रेज विद्वान् यहां आते हैं और भारतीय कला सौंदर्य के साथर जैनत्व और जैन धर्म की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं । इतिहासशी से ये बातें अप्रकट नहीं हैं। प्रत्येक धर्म जाति राष्ट्र या संप्रदाय विशेष के लिये जो कि विश्वव्यापक होने की अभिलाषा रखती हो ति पूजा को महत्व अवश्य अनुकरनीय है। मूर्तियों की विद्यमानता और मूर्ति पूजा की प्राचीनता को वही स्वीकार कर सकता है जिसने एतद्विषयक अनुसंधान और अन्वेषण कर सत्यवत प्राप्तिका द्रष्टि कोण रखा हो। प्राचीन तीर्थ मंदिरों के निर्माताओं की मूर्ति पूजा के प्रतिष्ठितनी अनन्य श्रद्धा, अटूटमति और दृढ विश्वास था इसके प्रमाण में स्वयं मंदिर ही विद्यमान हैं। जब तक भारत पर अन्य संस्कृद्धि का प्रभाव नहीं पड़ा था तब तक प्राय अखंड भारत मूर्ति पूजा का ही था। किंतु जब से मुसलमानों के हाथ भारत का शासन आया तब से धर्म पर शासन बल से, अमानुषिक अत्याचारों से, धन लोभ से एवं अनेक अन्योन्य स्वार्थसाधक उत्तेजनाओं से अपनी संस्कृति का रंग चणने का प्रयत्न किया और कतिपयांश में उनको अपने इस प्रयत्न में सफलता लाभ भी हुई किंतु सब पर इनकी संस्कृति का व्यापक प्रभाव न पड सका और वह समिति ही रह गई। स्वार्थी और धन लोलुपी लोगों का इनके भुलावे में और अंगुल में फस जाना स्वाभाविक ही था किंतु धर्म प्रेमी वीरों के हृदय में यह अनार्य संस्कृति अपना पर न कर सकी प्रत्युत् इससे धर्म दृढ़ता और पुष्टि को ही उत्तेजना मिली। वास्तव में मूर्ति ही धर्म और संस्कृति के टिकाव का मुख्य साधन है यह कहने की आवश्यकता नही क्यों कि सहृदय भव्यात्माओंने तो इसका अनुभव करना ही है और वर्तमान में भी करते ही हैं इतना ही नहीं मूर्ति हमारे लिये जीवनादि धोर रूप, आत्मज्ञान का साधन और यावत् मोक्ष आदिका साधन भी है। अपूर्ण.

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