Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 5
________________ आशीर्वचन जैन-दर्शन का निरूपण जीव और अजीव-इन दो तत्त्वो को आधार मानकर किया गया है । धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह पद्रव्यात्मक लोक है। इसमे जीव और अजीव-दोनो का समावेश है। लोक के स्वरूप को अधिगत करने के लिए छह द्रव्यो का बोध आवश्यक है। जीव फो उसके सपूर्ण विकास की प्रक्रिया से गुजरने के लिए नौ तत्त्वो का वोध आवश्यक है। "जैनधर्म जीवन और जगत्" पुस्तक मे द्रव्यवाद और तत्त्ववाद का सक्षिप्त और समीचीन स्वरूप उजागर हुआ है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए तीन वातें जरूरी है- ज्ञान देने वाला विद्वान, जान दान का माध्यम साहित्य और जिज्ञासु पाठक या श्रोता । देखा जाए तो आज तीनो ही श्रेणियो के व्यक्ति कम उपलब्ध होते हैं । निप्काम भाव स ठोस शान देने वाले गुरु कहा है ? जीवन-स्पर्शी गम्भीर साहित्य कहा है ? गहरी जिज्ञासा रखने वाले विद्यार्थी भी कहा है ? इस क्षेत्र में जो कमी आई है, आ रही है, उसकी सपूर्ति के लिए विशेष ध्यान देने की अपेक्षा है। हमने अपनी ओर से इस त्रिकोणात्फ अभियान को गति देने का लक्ष्य बना रया है । फलत' यहा अच्छे शिक्षक, अच्छा साहित्य और अच्छे विधापी उपलब्ध हैं । वतमान को अति व्यस्त जीवन-शैली मे जैन-दर्शन का ठोस अध्ययन करने के लिए कुछ अवकाश रहे, इस दृष्टि से "जन-विश्व भारती" फे समण सस्कृति सकाय की ओर से "जनविद्या" के साथ पत्राचार पाठमाला का एक सार्थक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। साहित्य-लेयन के क्षेत्र में हमने अपने धर्मसघ की साध्वियो को विशेष रूप से प्रेरित किया । अनेक साध्वियों ने उस प्रेरणा को पफमा और लेखन में रम लिया । साध्वी कनकधी उनमें एक है । वह अध्ययनशील है, प्रपर घरता है और अच्छी लेयिका है। वह अपने लेखन को अधिक गतिगोल बनाए । इसवे साप मेरी यह भी अपेक्षा है कि गभीर और ठोम साहित्य पे पाठको को सख्या में अभिवृद्धि हो । जैन विश्व भारती, गणाधिपति तुलसी १ मई, १९९६

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