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इतिहास
वर्णन है, जो जैन साहित्यके वर्णनसे कुछ अंशमें मिलता-जुलता हुआ भी है । उसमें लिखा है की जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्यसंख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया | उनके 'प्रियव्रत नामका लड़का हुआ । प्रियव्रतका पुत्र अग्नीध हुआ । अग्नीध्र के घर नाभिने जन्म लिया । नाभिने मरुदेवीसे विवाह कया और उनसे ऋषभदेव उत्पन्न हुए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्यासे सौ पुत्र उत्पन्न किये, और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके संन्यास ले लिया । उस समय केवल शरीरमात्र उनके पास था और वे दिगंबर वेष में नग्न विचरण करते थे । मौनसे रहते थे, कोई डराये, मारे, ऊपर थूके, पत्थर फेंके, मूत्रविष्ठा फेंके तो इन सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे । यह शरीर असत् पदार्थोंका घर है ऐसा समझकर अहंकार ममकारका त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेवके समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उनका क्रियाकर्म बड़ा भयानक हो गया शरीरादिकका सुख छोड़कर उन्होंने 'आजगर' व्रत ले लिया था । इस प्रकार कैवल्यपति भगवान ऋषभदेव निरन्तर परम आनन्दका अनुभव करते हुए भ्रमण करते करते कौंक, बैंक, कुटक, दक्षिण कर्नाटक देशोंमें अपनी इच्छासे पहुँचे, और कुटकाचल पर्वतके उपवन में उन्मत्तकी नाई नग्न होकर विचरने लगे । जंगलमें बाँसोंकी रगड़से आग लग गई और उन्होंने उसीमें प्रवेश करके अपनेको भस्म कर दिया ।'
इस तरह ऋषभदेवका वर्णन करके भागवतकार आगे लिखते हैं- ''इन ऋषभदेवके चरित्रको सुनकर कोंक बैंक
१ " यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोर्वकुटकानां राजा अहंनामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयपहाय कुपथपाखण्डमसमंजसं निजमनीषया मन्दः सम्प्रवर्तयिष्यते ॥९॥ येन बाव कलौ मनुजापसदा देवमाया मोहिताः स्वविधिनियोगशौच चारित्र