Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 25
________________ इतिहास डा० सर राधाकृष्णन् कुछ विशेष जोर देकर लिखते हैं· 'जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुतसी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थङ्करोंके नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' उक्त दो मतोंसे यह बात निर्विवाद हो जाती है कि भगवान पार्श्वनाथ भी जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे और उनसे पहले भी जैनधर्म प्रचलित था। तथा जैन परम्परा श्रीऋषभदेवको अपना प्रथम तीर्थङ्कर मानती है और जैनेतर साहित्य तथा उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रीसे भी इस बातकी पुष्टि होती है। नीचे इन्हीं बातोंको स्पष्ट किया जाता है । जैन-परम्परा जैन परम्पराके अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगतमें कालका चक्र सदा घूमा करता है। यद्यपि कालका प्रवाह अनादि और अनन्त है तथापि उस कालचक्रके छ विभाग हैं-१ अतिसुखरूप, १ 'There is evidence to sho.i' that so far back as the first century B. C. there were people who were worship. ping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parsvanath. The Yajurveda mentions the names of three tirthankaras-Rishabha, Ajitanath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism.'-Indian Philosophy. Vol. I. P. 287.

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